25 April, 2010

मायावती ही शिकार क्यों?

डॉ.गोपा जोशी के ब्लॉग वर्तमान भारतीय राजनीति से साभार
http://gopajoshi2010.blogspot.com/

15-16 मार्च 2010 को उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती ने अपने विरोधियों तथा मनुवादी समाज को दिल भर के चिढ़ाया। 15 मार्च को माया को (बकौल कांग्रेस के उत्तर प्रदेश के प्रभारी दिग्विजय सिंह के) दस मीटर लंबी हजार रुपए के नोटों की माला पहनाई गई थी। एक रपट के अनुसार इस माला में 50000 नोट लगे थे। सारे टी वी चैनल हतप्रभ थे। एक ऐंकर ने तो स्वामी रामदेव से वादा भी ले लिया कि राजनीति में आने के बाद स्वामी जी नोटों की माला नहीं पहनेंगे। (क्या वादा निभाने कभी कोई राजनीति में आता है?) राजनीतिज्ञों तथा मीडिया की हायतौबा को धत्ता बताते हुए मायावती ने 16 मार्च को फिर 18 लाख रुपये की नोटों की माला पहन ली। साथ ही अपने समर्थकों से घोषणा भी करवा दी कि भविष्य में मायावती का स्वागत उनके दल के लोग नोटों की माला पहना कर ही करेंगे।

15-16 की शाम प्राइम टाइम में करीब करीब सभी चैनलों ने माला प्रकरण में बहस मुबाहिसे करवाए। इन बहसों में भाग लेने वाले अधिकतर विशेषज्ञ भी नोटों की माला प्रकरण से क्षुब्ध थे। केवल दलित विशेषज्ञों को ही इसमें कुछ भी अनुचित नहीं लग रहा था। इससे पहले रैली के लिए नगर की साज सज्जा, प्रकाश तथा रैली भाग लेने वालों के खाने पीने के विस्तृत इंतजाम पर भी अंगुली उठ रही थी। कारण यह सब सरकारी पैसे से हो रहा था। क्या लालू के महा रैला निजी धन खर्च कर होते थे? या अन्य सत्ताशीन दल अपने पैसे से अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। इंदौर में बीजेपी का सम्मेलन किसके पैसे से हुआ?इससे पहले भी मायावती के पार्क निर्माण, मूर्तियाँ लगाने में किए गए सरकारी धन की बरबादी पर, जन्म दिन मनाने के लिए धन उगाही, तथा जन्म दिन पर हीरे जवाहरात पहनने पर मीडिया में हाय तौबा होती रही है।

मैं मायावती की न समर्थक हू न ही प्रशंसक। पर इतना जानती हूँ कि मायावती वही कर रही हैं जो मनुवादी परंपरा के अनुकूल है। अपने कदम को सही ठहराने के लिए वह अन्य दलों तथा उनके नेताओं के उदाहरण देती है। अभी रविवार को ही एक राष्ट्रीय अखवार के संपादक ने दिल्ली की मुख्य मंत्री के घर की सज्जा तथा लचीज खाने की तारीफ लिखी थी। मैं मानती हूँ कि धन के भौंडे प्रदर्शन और सुरुचिपूर्ण सजावट में फर्क है। परंतु सादा जीवन की परिचायक तो दोनों में से एक भी नहीं है। आज राजनेताओं में ममता बैनर्जी, अशोक गहलोत, ए.के ऐन्टनी जैसे अंगुलियों में गिने जाने वाले नेताओँ को ही मीडिया में सादगी का जीवन व्यतीत करने वालों में शामिल करता है। और तो सभी राजसी ठाट में रहते हैं। उस राजसी ठाट के कुछ नजारे वर्तमान सरकार के दो विदेश मंत्रियों की फिजूल खर्ची में सामने आए और मीडिया के दबाव में उन्हें पाँच सितारा होटल छोड़ने पड़े। यहाँ मीडिया के व्यवहार में एक भिन्नता साफ नजर आती है। सवर्ण नेताओं के मामले में मीडिया सवाल उठाता है, दबाव भी बनाता है पर मामले को उस तरह तूल नहीं देता जिस तरह दलित, आदिवासी नेताओं के अप्रत्याशित मनुवादी व्यवहार को देता है।

मायावती माला प्रकरण से प्रधानतया चार मुद्दे सामने आए। पहला सरकारी तंत्र व धन की बरबादी, दूसरा धन का भौंडा प्रदर्शन, तीसरा धन का स्रोत व चौथा नोटों को तोड़ना मरोड़ना। इसके अलावा गरीबों के हितार्थ कार्यक्रम चलाने के बजाय मूर्तियाँ बनवाने के लिए भी आलोचना होती रहती है। मायावती भर्तसना करने से पहले हमें अपने अंदर झाँकना होगा और खुद से पूछना होगा कि क्या आजाद भारत में तो हर कोई यह चारों काम करने आजाद नहीं है? संसद से लेकर सड़क तक हम में से हर कोई सरकारी तंत्र व धन की बरबादी करता रहता है। सड़क पर कोई हादसा हो जाए, अस्पताल में कोई मर जाए परिजन व आम जनता सार्वजनिक संपत्ति की तोड़ फोड़ कर ही अपना गुस्सा उतारती हैं। भारतीय सेना में कर्नल रहे कर्नल बैसला के नेतृत्व में चले गूजर आंदोलन के दौरान जिस तरह से सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाया गया जिस प्रकार से दूध सड़कों में बहाया गया उससे तो सुप्रीम कोर्ट तक दहल गया था। परंतु किसी ने नहीं कहा कि दूध को सड़क में बहाने के बजाय गरीबों में बाटा जा सकता था। राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय स्तर के नेता अपने साथियों के इस प्रकार के व्यवहार को सही ठहराते नहीं थकते। क्या सभी दलों के अध्यक्ष, सरकारों के मंत्री, सांसद, विधायक, प्रशासक आदि आदि स्वयं अपने व अपने परिजनों के लिए जायज व नाजायज तरीके सारी सरकारी सुविधाएँ व ऊँचे पद नहीं जुटाते हैं? कुछ समय पहले अखबार में पढ़ने को मिला कि एक न्यायाधीश महोदय अपने सरकारी विदेशी दौरे में अपनी पत्नी के लिए भी वही सब सुविधाएँ चाह रहे थे जिसके वे स्वयं हकदार थे। पर कानून इसकी इजाजत नहीं दे रहा था इसलिए सारा विवाद होरहा था। 29, 3, 10 की जनसत्ता में संसद में रेलवे द्वारा चलाई जा रही कैंटीनों में सरकारी अनुदान से परोसे जा रहे सस्ते भोजन के बारे में खबर छपी थी। इन कैंटीनों के प्रबंधन को लिए बनी सभी दलों के सांसदों की समिति को बाजार में बढ़ती कीमतों के अनुसार इन कैंटीनों में परोसे जाने वाले सामान की कीमतों को बढ़ाने की जरूरत कभी महसूस नहीं हुई।

सांसद, विधायक व स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधि सदन में बहस के माध्यम से सरकार को घेरने के बजाय सदन की कार्यवाही बाधित कर अपना विरोध प्रकट करते हैं। सदन की कार्यवाही नहीं चलने देने से कितने सरकारी धन की बरबादी होती है? जो राजनीतिक दल मायावती की इस सवाल पर आलोचना कर रहे थे उनको कभी भी यह चिंतन करने की आवश्यकता ही महसूस हुई कि वे और उनके दल के लोग किस तरह विभिन्न स्तरों की जन प्रतिनिधि सभाओं का काम बाधित कर कितना सरकारी धन और सुविधाओं का दुरुपयोग करते रहे हैं तथा कितने सरकारी धन का दुरुपयोग इन प्रतिनिधि सभाओं के सत्रों से अनुपस्थित होकर करते हैं। यह हकीकत है कि हर जन प्रतिनिधि सभा के सत्र में कोरम का टोटा हमेशा रहता है।

धन का भौंडा प्रदर्शन तो सदियों पुरानी बीमारी है तथा समाज का हर वर्ग इससे ग्रसित है। अभी हरिद्वार के कुंभ मेले में विभिन्न अखाड़ों ने जो धन संपत्ति का प्रदर्शन किया उसके सामने तो राजनेताओं की संपत्ति फीकी लग रही थी। जो साधु संत सांसारिक मोह माया त्याग कर ईश्वर प्राप्ति ही अपना जीवन लक्ष्य बना चुके हों उनके स्नान को शाही स्नान क्यों कहा जाता है? मुझे समझ नहीं आता। दूसरा, सबसे पवित्र महूर्त को क्यों संतो के स्नान के लिए आरक्षित किया गया है? यह भी मेरी मोटी बुद्धि को समझ नहीं आता। आम धार्मिक गृहस्थ तो संतो की तरह कठिन तप कर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता इसलिए शायद उसे मोक्ष प्राप्ति के लिए सबसे पवित्र महूर्त में स्नान करने की अधिक आवश्यकता होती है।जबकि संत तो मोक्ष प्राप्त कर चुके होते हैं। उनके तो स्पर्श मात्र से ही हर जल पवित्र हो जाता है। कहने का मतलब है कि आदि काल से ही हमारी पूरी व्यवस्था असमानता व खास के लिए खास सुविधा आरक्षण के सिद्धांत पर आधारित है। मायावती क्या कर रही है केवल इतना ही कि इस व्यवस्था की चादर को अपने सिर पर भी तान रही है। जब ऊपरी जमात यह करती है तो हमें कोई परेशानी नहीं होती परंतु जब सदियों से दलित बनाए गए लोग करते हैं तो हमें मिर्ची लगती है। हमें गरीब गुरबे याद आते हैं।

हमारे धार्मिक संस्थानों में धन का जब प्रदर्शन होता है तब भी हमें गरीब याद नहीं आते। मुंबई में गणेश उत्सव के बाद हर साल चढ़ावे की खबरें मीडिया में चटकारे ले ले कर बताई जाती हैं। बहुमूल्य रत्न जड़ित आभूषणों के फोटो दिखाए जाते हैं। या अक्सर धनी लोगों द्वारा रत्न जड़ित मुकुट या कुर्सी का चढ़ावा या करोड़ों बड़े बड़े मंदिरों में चढ़ावा मीडिया में खबर बनता है। पर कहीं यह प्रश्न नहीं उठती कि भारत जैसे गरीब देश में इस पूँजी को गरीबी, कुपोषण दूर करने के लिए क्यों नहीं लगाया जाना चाहिए? यह उस धर्म के अनुयाइयों का हाल है जिस धर्म में जीव मात्र में भगवान के दर्शन होते हैं। पर हम जीव मात्र की पूजा करने के बजाय धन की पूजा करते हैं।

मायावती ने लखनऊ नौएडा में पार्क बनाए मूर्तियाँ लगाई तो उत्तर प्रदेश के गरीब व पिछड़े, समाज के सभी प्रबुद्ध जनों को याद आए। लेकिन मुलायम सिंह जब मुख्यमंत्री थे तब सैफई में क्या कर रहे थे? या अन्य दलों के नेता अपने प्रतीकों पर कितना सार्वजनिक धन संपत्ति बरबाद करते हैं? क्या गरीब या गरीबी केवल उत्तर प्रदेश में है। महाराष्ट्र में कांग्रेस, बीजेपी शिव सेना क्या प्रतीकों की राजनीति नही करते क्या वहाँ गरीब नहीं है।(14वीं लोक साभा व महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव से ऐन पहले महाराष्ट्र सरकार ने मुंबई में जो शिवाजी की विशालकाय मूर्ति लगाने की घोषणा की थी उस समय महाराष्ट्र के गरीबों या मुंबई के गरीबों की याद किसी ने सरकार को नहीं दिलाई।) दिल्ली में राष्ट्रीय नेताओं के स्मारक बनाने में जो संसाधन लगाए गए यदि उन संसाधनों का उपयोग में हाशिये पर रह रहे लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए किया जाता तो क्या वह उन नेताओं को सच्ची श्रद्धांजलि नहीं होती? दिल्ली में रह रहे अधिकतर लोगों के पास भी जीवन की मूल सुविधाएँ नहीं हैं।

सिविल सोसाइटी भी गरीबों को हाशिए में रखने में विश्वास करती है। पिछली शताब्दी के नब्बे के दशक में भारत के लगभग सभी बड़े शहरों में पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उद्योगों को बंद कर दिया गया। लाखों मजदूर बेरोजगार होगए। इसी बहाने गरीबों की झुग्गियाँ तोड़ी जाती हैं। सिविल सोसाइटी ने पर्यावरण के नाम पर इस कदम को सराहा। परंतु जब धार्मिक उत्सवों के बाद मूर्ति व पूजा सामग्री विसर्जन से नदियों, तालावों व समुद्र का पानी प्रदूषित होता है। फटाकों से ध्वनि प्रदूषण होता है। वायु प्रदूषण होता है। सिविल सोसाइटी आँख मूँद लेती है। मीडीया में हर साल पिछले साल से बड़ी मूर्तियाँ या सबसे बड़ी मूर्ति लगाने का दावा धार्मिक संस्थाएँ करती हैं। श्रद्धा में डूबे लोगों से पर्यावरण प्रदूषण के बारे में कोई नहीं पूछता। यहाँ पर भी खास लोगों के लिए खास सुविधाएं वाला सिद्धांत ही लागू होता है। बूढ़े़, बीमार व अशक्त पर इस पर्यावरण प्रदूषण का असर सर्वाधिक पड़ता है। बूढ़े़, बीमार व अशक्त भी तो एक तरह से हाशिये के लोग ही तो हैं। गरीबों में इनकी तादाद अधिक होती है। हम मानव कल्याण की बात तो करते हैं पर काम नहीं। हमें भी गरीब को तभी याद करते हैं जब मायावती व अन्य दलित धन प्रदर्शन करते हैं।

मैं मायावती का समर्थन या बचाव नहीं कर रही हूँ। गलत काम गलत है चाहे गलती कोई भी करे। परंतु यदि गल्ती करना हमारी आदत बन गई हो और इसको सामाजिक मान्यता मिल गई हो तो मामला गंभीर हो जाता है। हमें समरथ को नहीं दोष गोसाईं वाली मानसिकता को समाप्त करना होगा। मायावती से पहले सदियों से चले आ रहे समाज के उन कर्णधारों को खास से आम बनना होगा जिनको मायावती के खास बनने पर आम जन की याद आती है। ऐसा किये बगैर मायावती की आलोचना करना महज अपने मनुवादी दुराग्रहों को अभिव्यक्ति देना ही होगा।

17 February, 2010

डॉ. धर्मवीर की 'प्रेमचंद- सामंत का मुंशी'

डॉ. धर्मवीर की पुस्तक ‘प्रेमचंद: सामंत का मुंशी’ उनकी ‘मातृसत्ता, पितृसत्ता और जारसत्ता’ पर पुस्तक शृंखला की तीसरी पुस्तक है. पुस्तक का नाम देखकर ऐसा लगता है कि इसमें शायद प्रेमचंद के कथा साहित्य की एक नई दृष्टि से व्याख्या होगी. परंतु ऐसा है नहीं. इस किताब का प्रेमचंद के साहित्य से कुछ खास लेना देना नहीं है. वह तो यों ही बीच बीच में छिटपुट आ जाता है. डॉ. धर्मवीर प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ का जिक्र करते हुए घीसू और माधव के अमानवीय व्यवहार को उनका विद्रोह बताते हुए कहते हैं— ‘सारी कहानी नए सिरे से स्पष्ट हो जाती यदि प्रेमचंद इस कहानी की आखरी लाइन में दलित जीवन का यह सच लिख देते कि बुधिया गाँव के जमीदार के लोंडे से गर्भवती थी. उसने बुधिया से खेत में बलात्कार किया था. तब, शब्द दीपक की तरह जल उठते और सब कुछ समझ में आ जाता. अपेक्षा ज्यादा की थी लेकिन घीसू और माधव इतना ही विद्रोह कर सके थे कि जमींदार के बच्चे को अपना बच्चा नहीं कहेंगे. यह असली पीड़ा है. दलित का असली शोषण यह है कि कई बार उसकी कथित औलाद उसकी असल औलाद नहीं है. इस शोषण के सामने आर्थिक शोषण कितना छोटा पड़ जाता है!’ (पृ.17) वे आगे कहते हैं—‘क्या बेहतर है—बुधिया और बुधिया के बच्चे को मरने देना—या दूसरों की औलाद को अपनी कह कर पालना.’ (पृ.29)

जबकि प्रेमचंद अपनी कहानी ‘कफन’ में घीसू और माधव के अमानवीय चरित्र का कारण बताते हुए लिखते हैं—‘जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा संपन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी.’ (पृ.19)

लेकिन इससे डॉ. धर्मवीर को क्या? प्रेमचंद का उनका मूल्यांकन प्रेमचंद की दूसरी पत्नी शिवरानी देवी के संस्मरण- ‘प्रेमचंद: घर में’ में दी गई एक घटना पर आधारित है. जिसमें प्रेमचंद कहते हैं- ‘अच्छा एक और चोरी सुनो. मैंने अपनी पहली स्त्री के जीवन-काल में ही एक और स्त्री रख छोड़ी थी. तुम्हारे आने पर भी उससे मेरा संबंध था.’(पृ.24) उनके अनुसार—‘यह हुआ प्रेमचंद के पारिवारिक जीवन का हिसाब-किताब—दो पत्नियाँ और एक रखैल और बाकी...? यह शरण कुमार लिंबाले जैसे दलित लेखकों की जन्मकुंडली है. वे ऐसे ही पैदा होते हैं.’ (पृ.29) और ‘यदि इन दो ब्याहताओं के अलावा उस तीसरी औरत के पेट से प्रेमचंद का बच्चा जन्मा हो तो वह औरत अपने ससुर और पति के लिए घीसू और माधव की बुधिया बन कर रह जाती है.’(पृ.26) डॉ. धर्मवीर आगे कहते हैं- ‘बताइए, हिंदी के इस महान कहे जाने वाले लेखक ने ताउम्र चोरी की! सेक्स का चोर साहित्य लिख रहा है.’ (पृ.27) और ‘यदि वह तीसरी औरत उनकी रखैल थी तो उसका भरण-पोषण भी किया होगा. तब हो गया न डबल खर्चा. फिर हो गए न जमींदार सिद्ध. फिर किसी लेखक की गरीबी के रोने कैसे?’ (पृ.26-27) और ‘मैं उन्हें साहित्यिक जमींदार कहना चाहता हूँ. साहित्यिक जमींदार ही रखैल रख सकते थे जो उन्होंने सच में रख रखी थी.’ (पृ.43-44)

लेकिन प्रेमचंद ही क्यों पूरा हिंदू समाज और उसका कानून ही इस जारकर्म के लिए दोषी है. वे कहते हैं—‘उनका (प्रेमचंद) हिंदू कानून एक बुरा कानून था, इसीलिए प्रेमचंद रखैल रखने की जुर्रत कर सके. उनके हिंदू कानून में हर पति जमींदार और सामंत होता है.’ (पृ.28) उनके अनुसार—‘किसी भी हिंदू पुरुष या हिंदू स्त्री को विवाह या पुनर्विवाह के शब्दों का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं है. इन्हें विवाह या पुनर्विवाह के कायदे-क़ानूनों का क्या पता जब उस दौरान इनके लिए जारकर्म कानूनी रूप में अनुमत रहता है. इसलिए हिंदुओं के विवाह को विवाह न कह कर विवाह+जारकर्म कहा जाए तो सच्चाई के ज्यादा नजदीक जाया जा सकता है.’ (पृ. 26)

इस पुस्तक में प्रेमचंद के मूल्यांकन का आधार उनका साहित्य न हो कर उनका चरित्र है. वे कहते हैं—‘भारत के जातीय वातावरण में किसी लेखक की जाति जानने से उसके साहित्य को समझने में काफी मदद मिलती है.’ (पृ.13) उन्हें बुधिया की पीड़ा से ज्यादा चिंता प्रेमचंद की तीसरी औरत को खोजने की है और इस यज्ञ में वे सभी को शामिल करवाना चाहते हैं—‘प्रेमचंद के व्यक्तित्व और कृतित्व पर भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पीएचडी की उपाधि के लिए सैंकड़ों शोध कार्य हो चुके हैं,--क्या उनमें से किसी ने इस बाबत खोज की है?’ (पृ.30) यानी डॉ. धर्मवीर कह रहे हैं कि किसी व्यक्ति के साहित्य का मूल्यांकन उसके साहित्य के आधार पर न करके उसके व्यक्तिगत चरित्र के आधार पर किया जाए. इसका मतलब हुआ कि कोई किताब पढ़ने से पहले हमें लेखक की जाति और निजी जीवन की जाँच करानी चाहिए. यदि जाँच रिपोर्ट हमारे मन माफिक हो तभी उस किताब को पढ़ना चाहिए.
डॉ. धर्मवीर ने अपना पूरा तर्क इस एक बात पर खड़ा किया है. और यहाँ से वे अपनी ‘महान’ खोज जार कर्म की ओर जाते हैं. दलितों की स्थिति का बखान करते हुए डॉ. धर्मवीर कहते हैं—‘दलित की मुसीबतों का एक पूरा दलित शास्त्र हुआ करता है. यह दलित शास्त्र क्या है और किस हद तक लागू होता है? मोटे रूप में यह शास्त्र दो चीजों से बना है. ...पहला, दलित पुरुषों के साथ अस्पृश्यता और दलित नारियों के साथ बलात्कार और जारकर्म—ये इसके दो बड़े विभाजन हैं. ये किस हद तक लागू होते हैं? ये दोनों शत-प्रतिशत लागू होते हैं क्योंकि ये जातीय आधार पर हैं, व्यक्तिगत आधार पर नहीं.’ (पृ.19) दरअसल इस पुस्तक का विषय प्रेमचंद का साहित्य न हो कर जारसत्ता है. दिलचस्प बात यह है कि डॉ. धर्मवीर पूरी पुस्तक में जारसत्ता के उदाहरण तो पेश कर रहे हैं पर वे इनके मूल कारणों की पड़ताल नहीं कर रहे हैं. उनके उदाहरण तिलमिला देने वाली भाषा में अपने विरोधियों का मजाक उड़ाने वाले हैं.

डॉ. धर्मवीर सवर्णों के बारे में अपने पावन विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं—‘द्विज के सामने मोरल की बात कही जाएगी तो वह घर छोड़कर संन्यासी तो बन सकता है लेकिन पारिवारिक और वैवाहिक जीवन में सदाचारी नहीं बनेगा. उसके संस्कार की कुछ बुनावट ही ऐसी है कि वह गृहस्थ जीवन में रखैल, वेश्या और परस्त्री के साथ के जारकर्म से रुक नहीं रहा है. इसे कौन समझाए,--नहीं, इसके प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों को कौन समझाए.’ (पृ.30)

वैसे तो उन्हें स्त्री मात्र से चिड़ है, जो इनके पुराने लेखन से और इसी शृंखला की दूसरी पुस्तक के ‘तीन हिंदू स्त्री लिंगों का चिंतन’ के नाम तक से जाहिर होती है, पर दलित लेखिकाओं से उन्हें खास आपत्ति है. वे कहते हैं--‘मुझे और भी बुरा लगता है जब कोई दलित नारी गैर-दलित पुरुष का बचाव करती है, अब वह अनिता भारती हों या कोई और. अनिता भारती प्रेमचंद के रूप में एक जार पुरुष की प्रशंसा कर रही हैं.’(पृ.51) और ये ‘दलित महिला के यौन-शोषण को कितने हल्के ढंग ले रही हैं. बस, इनकी तरफ से यही कहने की कमी रह गई है कि द्विज लोग दलित स्त्रियों का शोषण नहीं करते हैं बल्कि उन पर उपकार करके और उन्हें गर्भवती करके उन्हें संतान देते हैं. क्या अनिता भारती बुधिया बनना चाह रही हैं. मुझे नहीं लगता कि उस बेचारी का कोई दोष था लेकिन अनिता भारती की सोच में निश्चित रूप से भारी खोट है. जब स्त्री का यौन शोषण हो गया तो घर लुट गया. तब चमारी के गर्भ से जमीदार की औलाद पलेगी. फिर, क्या न्यूनतम मजदूरी का सवाल और किसके बच्चों के लिए शिक्षा? तब क्या नारी के अधिकार बनते हैं जब पुरुष के पास देने को ही कुछ नहीं बचा है?’(पृ.66) डॉ. धर्मवीर के मुताबिक दलित समस्या की जड़ गरीबी या असमानता नहीं बल्कि दलित औरत का यौनाचार है—‘मामला गरीबी तक सीमित नहीं है, --मामला गरीबी का बिलकुल नहीं है—बल्कि दलित औरतों के यौनाचार की गुलामी का है.’(पृ.16)

पाठकगण, आप भी जानें कि अनिता भारती ने ऐसा क्या लिख दिया जिससे डॉ. धर्मवीर को उनकी सोच में भारी खोट दीख रहा है—‘सवाल उठता है कि दलित साहित्यकार स्त्री के यौन शोषण या बलात्कार से, सवर्णों के उन पर आधिपत्य से इतने आतंकित क्यों हैं? क्यों बार-बार लेखन का विषय दलित स्त्री का शोषण बनता है. जबकि दलित लेखिकाओं का कलेवर अत्यंत विस्तृत है. वह दलित स्त्री के अस्तित्व से ले कर, न्यूनतम मजदूरी, शिक्षा, उनके अपने समाज द्वारा हड़पे गए अधिकारों तक को उन्होंने अपने साहित्य का विषय बनाया है. दलित स्त्री की केवल और केवल समस्या यौन शोषण ही तो नहीं है.’(पृ.65-66)

सच कहें तो मामला दलित स्त्रियों या हिंदुओं के जारकर्म का नहीं, भारत के प्रगतिशील विचारकों और चिंतकों को घेरने का, उनकी छवि धूमिल करने का है. नहीं तो लेना एक न देना दो, नेहरू जी को लपेटने का क्या बढ़िया तर्क दिया है—‘पंडित जवाहर लाल नेहरू नाम के ब्राह्मण को मुफ्त में प्रगतिशील होने का खिताब दिलवा देती है जबकि नेहरू एक ब्राह्मण होने के नाते हिंदू कोड बिल के मामले में पूरे पिछड़े हुए आदमी थे.’ (पृ.15) वे पहले भी हजारी प्रसाद द्विवेदी, मैनेजर पाण्डेय, पुरुषोत्तम अग्रवाल आदि प्रगतिशीलों की खबर ले चुके हैं.

वे अपनी कृपादृष्टि दलित स्त्रियों या सवर्ण प्रगतिशीलों पर ही नहीं भगवान बुद्ध पर भी डालते हैं—‘ प्राचीन भारत में बुद्धं शरणं गच्छामि करने वाले उन बौद्ध भिक्षुओं की इतनी लंबी कतार क्या थी? अध्यात्म की खोज और प्राप्ति की बात होती तो दो-चार लोग घऱ-बार छोड़ कर भिक्षु, अर्हत या संन्यासी बन जाते. इतने सारे लोग अपने घरों को छोड़कर आध्यात्मिक क्यों बन गए हैं? ध्यान रहे, संन्यासियों ने घर-बार ही नहीं छोड़ा है, बल्कि समाज और राष्ट्र भी छोड़ा है. संन्यास का दूसरा नाम सामाजिक मृत्यु है. ऐसे कानून से व्यक्ति के लिए संन्यास से ही जिन्दा रहने का एकमात्र रास्ता निकलता है. लेकिन उसमें राष्ट्र लुट जाता है—तब वह विदेशियों के हाथों में चला जाता है.’ (पृ.48) यानी कि भारत की मुसलमानों के आगे हार में बौद्धों का प्रभाव था तो भइया ईसाइयों के समय हार में कौन-सा बौद्ध धर्म आड़े आया, जरा ये भी बता देते तो बहुत अच्छा होता. पाठको, सच्चाई तो ये है कि भारत की हार का मुख्य कारण इसका जातियों और छोटे-छोटे रजवाड़ों में बँटा होना था. लेकिन यहीं तक इति नहीं है डॉ. धर्मवीर की पावन दृष्टि से डॉ. अंबेडकर भी बच नहीं पाए हैं-- ‘यदि बाबा साहेब के पास उस समय भारत के तमाम दलित संतों का साहित्य उपलब्ध होता तो वे बुद्ध की शरण में जाने के बजाय अपने संतों के ढिग बैठते.’ जब डॉ. अंबेडकर को नहीं बख्शा तो बेचारे प्रेमचंद की क्या बिसात.

अरुण शौरी की इतिहासकारों पर एक किताब है—‘एमिनेंट हिस्टोरियन्स: देअर टेक्नोलॉजी, देअर लाइन, देअर फ्राड’. इस किताब में उसने सभी महत्त्वपूर्ण साम्यवादी इतिहासकारों की कटु आलोचना की है. पाठकगण, उनकी इतिहास संबंधी अवधारणाओं की नहीं, उनके टीए-डीए बिलों और अनुदानों के हेर-फेर की. ये बातें भी कितनी तथ्य आधारित है ये तो विभाग की गोपनीय फाइलें ही बता पाएँगी. कमोबेश यही पद्धति अरुण शौरी ने डॉ. अंबेडकर पर लिखी अपनी किताब ‘वर्शिपिंग फाल्स गॉड्स’ में अपनाई है. और ठीक यही पद्धति डॉ. धर्मवीर ने इस पुस्तक में प्रेमचंद पर अपनाई है.

आइए, इसके बरक्स जरा ये भी जानें कि डॉ. अंबेडकर जार कर्म पर क्या कहते हैं. अपनी पुस्तक ‘बुद्ध या कार्लमार्क्स’ (सेवास्तंब एवं संजीवैय्या इंस्टीट्यूट ऑफ सोशियो इकनोमिक स्टडीज़, दिल्ली द्वारा प्रकाशित, पृ.35) में बुद्ध को उद्धृत करते हुए कहते हैं—‘(15) और बंधुओं, इसलिए, दीन-हीनों, दरिद्रों को वस्तुएँ व माल न दिए जाने से निर्धनता फैली, उसका विस्तार हुआ, चोरी, हिंसा, हत्या, झूठ, बुराई करना आदि जैसी बातें प्रचुर मात्रा में बढ़ गई. (16) झूठ बोलने से जार कर्म में वृद्धि हुई. (17) इस प्रकार दीन-हीनों, दरिद्रों को माल व वस्तुएँ न दिए जाने के कारण निर्धनता... ए चोरी... हिंसा... झूठ... चुगलखोरी... अनैतिकता फैली, उसका विस्तार हुआ. (18) बंधुओं उनके बीच तीन चीजों की वृद्धि हुई. ये थीं, कौटुंबिक व्यभिचार, अनियंत्रित लालच तथा विकृत लोभ’.

यानी कि भगवान बुद्ध और डॉ. अंबेडकर के अनुसार व्यभिचार या जार कर्म का कारण आर्थिक असमानता और उससे उपजी निर्धनता है. यही बात कार्ल मार्क्स ने ‘अर्थशास्त्र और दर्शन संबंधी 1844 की पांडुलिपियाँ’, (इंडिया पब्लिशर्स, लखनऊ, 1981, पृ. 38-39) में फ्रांसीसी दार्शनिक व समाजशास्त्री पेक्वेअर कांसतेंतिन को उद्धृत करते हुए कहा है—‘इस तरह की आर्थिक व्यवस्था मनुष्यों को ऐसे अधम पेशों में काम करने के लिए मजबूर करती है. ऐसी भयानक और कटुतापूर्ण अधोगति की ज़िंदगी जीने के लिए विवश करती है कि इसकी तुलना में, बर्बर मनुष्य का जीवन भी राजकीय ठाटबाट वाला प्रतीत होता है. संपत्ति-विहीन वर्ग के साथ सभी रूपों में व्यभिचार किया जाता है.’

संक्षेप में, जहाँ मार्क्स और अंबेडकर व्यभिचार या जारकर्म के लिए निर्धनता और असमानता को दोषी ठहराते हैं तथा वहीं डॉ. धर्मवीर उच्च जातियों की हिंदू मानसिकता को इसका दोष देते हैं. दरअसल उनकी दिक्कत यह है कि उन्होंने अपने शत्रु तय कर लिए हैं. उनके वैचारिक संहार के लिए वे तर्कों के हथियार लेकर घूम रहे हैं, चारों ओर कत्लेआम मचाते हुए. यही कारण है कि दलित स्त्रियों का यौन शुचिता के अलावा दूसरे मुद्दों पर बात करना इन्हें नागवार गुजरता है.

जिस व्यक्तिगत नैतिकता पर डॉ. धर्मवीर और अन्य फासीवादी इतना ज़ोर देते हैं, उस पर जर्मन कवि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की एक कविता याद आती है—
मैंने सुना है, प्रधान मंत्री पीता नहीं है
वह नहीं खाता मांस और नहीं करता धूम्रपान
और वह रहता है एक छोटी सी कोठी में.
पर मैंने यह भी सुना है, ग़रीब
भूखों मर रहे और गल रहे कंगाली में.
क्या ही बेहतर होता राज्य वह, जहाँ यह कहा जाता:
प्रधान मंत्री धुत्त बैठता है कैबिनेट की बैठकों में,
अपने पाइपों से निकलते धुएँ को घूरते, कानून बदलते हैं
कुछेक अनपढ़ बैठे-बैठे.
ग़रीब नहीं हैं.

किसी भी सार्वजनिक व्यक्तित्व का सार्वजनिक आचरण और मूल्यबोध ही महत्त्वपूर्ण होता है. क्योंकि वही समाज को प्रभावित करता है. अक्सर निजी जीवन में व्यक्तिगत नैतिकता को अतिरेक की हद तक महत्व देने वाले लोग सार्वजनिक जीवन में बेहद क्रूर होते हैं या क्रूर और अमानवीय नीतियों का मौन/मुखर समर्थन करते पाए जाते हैं. जैसे औरेंगजेब और अडवाणी.

हालाँकि डॉ. धर्मवीर इसे भी अनैतिकता के समर्थन में मान सकते हैं. पर इसका किया ही क्या जा सकता है. उनकी दृष्टि से देखें तो कई सवालों पर उनकी राय आना अभी बाकी है. जिन दलित स्त्रियों ने सवर्ण पुरुषों से विवाह किया वे तो उनके अनुसार बलातकृता और रखैल हैं तो जिन दलित पुरुषों ने सवर्ण स्त्रियों से विवाह किया उन सवर्ण स्त्रियों को वे क्या मानते हैं और उन दलित पुरुषों के बारे में उनका क्या नज़रिया है. और जिन दलित पुरुषों ने अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति मजबूत होने के चलते दलित या सवर्ण स्त्रियों से जार कर्म किया है, उन पर उनकी राय क्या है.

दरअसल डॉ. धर्मवीर की समझ सिर के बल खड़ी है. वे हिंदू धर्म के ब्राह्म विवाह को कारण और जार कर्म को उसका परिणाम मान रहे हैं. इसीलिए वे हिंदू कोड बिल के सख्ती से लागू किए जाने को सारी समस्याओं का हल मान रहे हैं. जबकि वास्तविकता यह है कि दलितों का यौन शोषण उनकी आर्थिक-समाजिक स्थितियों के कारण होता है, हिंदू धर्म के मनुस्मृति सरीखे ग्रंथ इसके कारण नहीं, केवल स्थिति को रेखांकित करने वाले हैं. इनका विरोध– ढोर, गंवार, सूद्र, पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी—जैसी इक्का दुक्का टिप्पणियों के आधार पर न करके, उनकी मूल असमानता वादी दृष्टि के आधार पर करना चाहिए. इसीलिए राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्री सूरजभान की यह माँग की कि हिंदुओं को अपने धर्म ग्रंथों से ऐसी टिप्पणियों को निकाल देना चाहिए. हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को रास आती है, दलितों को नहीं.

जातिवाद की समस्या का हल बताते हुए डॉ. अंबेडकर कहते हैं—‘समाज का लक्ष्य एक नवीन नींव डालने का होना चाहिए, जिसे फ्रांसीसी क्रांति द्वारा संक्षेप में तीन शब्दों में—समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा—कहा गया है.’ (बुद्ध या कार्ल मार्क्स, पृ.40) इतना ही नहीं, ‘डॉ. अंबेडकर जाति व्यवस्था का प्रतिपक्ष सामाजिक जनतंत्र—सोशल डेमोक्रेसी को मानते थे. राजनैतिक जनतंत्र और सामाजिक जनतंत्र के बीच बिल्कुल ठीक फर्क करते हुए वे राजनीतिक जनतंत्र को सामाजिक जनतंत्र को स्थापित करने का साधन मानते थे.’ (पुरुषोत्तम अग्रवाल, अकबर नाम लेता है खुदा का... , तद्भव, अप्रैल 2003, पृ.54) इसीलिए डॉ. अंबेडकर ने इस देश में अपने संविधान के द्वारा राजनैतिक जनतंत्र स्थापित किया और सामाजिक जनतंत्र का रास्ता खोला.

डॉ. अंबेडकर अपने प्रसिद्ध भाषण – जातिभेद का उच्छेद – में जातिवाद को तोड़ने का सबसे ताकतवर हथियार अंतर्जातीय विवाह को मानते हैं. और डॉ. धर्मवीर को दलित महिलाओं का अंतर्जातीय विवाह की बात करना दलित कौमों का मजाक उड़ाना लगता है—‘तब अनिता भारती क्या कह रही हैं? दलित कौमें हारी हुई हैं—और इसका सबसे खतरनाक अर्थ यह है कि उनकी औरतें उनकी नहीं हैं. इसलिए, जब कोई दलित नारी जात तोड़ने की बात कहती है तो लगता है मानों वह दलित कौमों की ज्यादा मजाक उड़ा रही है क्योंकि तब गैर दलितों द्वारा उड़ाई मजाक कम पड़ती है.’ (पृ.53) इतना ही नहीं वे सामाजिक शिष्टाचार का उल्लंघन करते हुए व्यक्तिगत टिप्पणी करते हैं—‘अनिता भारती दलित पुरुषों से अलग से क्या चाहती हैं? दलित स्त्रियों को रखैल, वेश्या और देवदासी बना कर यौन मामलों में उनकी जात पूरी तरह तोड़ दी गई है. इसलिए, ऐसी सोच की स्त्री यदि अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहती है तो गैर-दलितों से लड़े. रखैल के रूप में अधिकार माँगे, वेश्या के रूप में दाम बढ़वाए और देवदासी के रूप में पुजारी की संपत्ति में हाथ मारे—यहाँ दलित पुरुष के पास क्या रखा हैं? जब दलित की पत्नी जमीदार के रह रही हो और जमीदार से अपने बच्चे पैदा कर रही हो तो दलित पति से मिलने वाले उसके कौन से अधिकार सृजित होते हैं? तब जो भी उसके अधिकार बनते हैं वे जमीदार की तरफ से बनते हैं. तो वहाँ लड़े, यहाँ क्या कर रही है?’ (पृ.67) डॉ. धर्मवीर दलित साहित्यकारों को रास्ता दिखा रहे हैं कि वे क्या लिखें--‘दलित साहित्य उसे ही कहा जाएगा जिसमें पारिवारिक जीवन में तलाक की अनुमति हो, स्त्री के लिए भरण-पोषण पर रोक लगे तथा जारकर्मी को जारकर्म की जिम्मेदारी से नवाजा जाए.’ (पृ.53).

दलित लेखकों और चिंतकों के सामने डॉ. अंबेडकर का अधूरा कार्य पड़ा है. सामाजिक जनतंत्र और आर्थिक समानता की स्थापना का. डॉ. अंबेडकर एक पुस्तक लिख रहे थे—क्रांति और प्रतिक्रांति की संकल्पना पर. आज प्रतिक्रांति की ताकतें प्रबल हैं. यह फैसला दलित लेखकों और चिंतकों को करना है कि वे किस तरफ हैं.

29 January, 2010

अंबेडकरवादी कहानी की भूमिका

‘संभवतः वर्तमान हिंदू मार्क्सवाद के घोर विरोधी हैं. इसके पीछे कारण यह है कि मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत से वे बहुत ही भयभीत हो जाते हैं. लेकिन वही लोग यह भूल जाते हैं कि भारत न केवल वर्ग-संघर्ष, बल्कि वर्ग युद्ध की भूमि भी बन चुका है.’
—डॉ. अंबेडकर, ‘हिंदुत्व का दर्शन’ से

पुराने ज़माने से ही भारत के लोगों ने यहाँ के शासक वर्ग का विरोध किया है, शासक वर्ग की विचारधारा का विरोध किया है. शासक वर्ग की विचारधारा का स्रोत वैदिक साहित्य है. वैदिक साहित्य को तीन भागों में बाँटा जाता है—संहिता, ब्राह्मण और उपनिषद. संहिताएँ चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद. वैदिक साहित्य का कर्मकांडीय पक्ष ब्राह्मणग्रंथ हैं. ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य हैं—ऐतरेय, शांखायन, शतपथ, तवल्कार और गो-पथ. वैदिक साहित्य का विचारधारा या चिंतन पक्ष उपनिषदों में आता है. उपनिषदों में मुख्य हैं—ऐतरेय, छांदोग्य, केन, कठ, ईश, प्रश्न और मांडूक्य. इन ब्राह्मणग्रंथों ने भारतीय समाज में जो कर्मकांड का जाल फैलाया उसने असमानता और अशिक्षा को बढ़ावा दिया, ब्राह्मण वर्ग को विशेषाधिकारों का मालिक बनाया. और उपनिषदों ने इन ब्राह्मणग्रंथों द्वारा ब्राह्मणों को दिए विशेषाधिकारों पर छद्म मानवता का मुलम्मा चढ़ाया. छद्म मानवता इसलिए कि इसमें मानवतावादी शब्दावली में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का ही डंका बजाया गया है.

यही ब्राह्मणवाद यहाँ के शासक वर्ग की विचारधारा रही है. यह विचारधारा असमानता और ब्राह्मण वर्ग के विशेषाधिकारों की समर्थक रही है. यहाँ के शासक वर्ग की अपनी भाषा (संस्कृत) तक रही है. जो यहाँ के संसाधनों के शोषण का जरिया रही है. यहाँ के शासक वर्ग की विचारधारा ब्राह्मणवाद यानी ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता का गुणगान, उसकी समाजव्यवस्था यानी वर्णाश्रम व्यवस्था और जातिवाद, उसकी शोषण और लूट की तिकड़में यानी यज्ञ और उसकी भाषा यानी संस्कृत—यही सब मिलकर बनाते हैं भारतीय शासकवर्ग के लूटतंत्र का ढाँचा.

और इन्हीं चारों चीज़ों को सबसे पहले और सबसे ताकतवर ढंग से चुनौती दी थी—भगवान बुद्ध ने. भगवान बुद्ध ने लूट की तिकड़म -यज्ञों- का सबसे जबर्दस्त विरोध किया, ब्राह्मण भाषा ‘संस्कृत’ के स्थान पर लोकभाषा पालि को अपनाया. वैदिक विचारधारा की छद्म मानवता के शब्दजाल को काट दिया और समानता का दीपक जलाया. समाज में विज्ञान के विकास को प्रोत्साहन दिया. उनके संघों में चिकित्साशास्त्र और दूसरे ज्ञान-विज्ञानों को आश्रय मिलता था.

पूरी दुनिया का स्वतंत्र चिंतन का सबसे पहला महान घोषणा पत्र (मैग्ना कार्टा) सुमत्ति सुत्त है. इसमें भगवान बुद्ध कहते हैं—हे कालामो! आओ, तुम किसी बात को केवल इसलिए स्वीकार मत करो कि यह अनुश्रुत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह बात परंपरागत ... है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह हमारे धर्मग्रंथ के अनुकूल है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह तर्कसम्मत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह अनुमान-सम्मत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि इसके कारणों की सावधानीपूर्वक परीक्षा कर ली गई है, केवल इसलिए स्वीकार मत करो कि कहने वाले का व्यक्तित्व भव्य है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य है. हे कालामो! जब तुम स्वानुभव से अपने आप ही यह जानो कि ये बातें अकुशल हैं, ये बातें सदोष हैं, ये बातें विज्ञ पुरुषों द्वारा निंदित हैं, इन बातों पर चलने से अहित होता है, दुःख होता है – तब हे कालामो! तुम उन बातों को छोड़ दो.

भगवान बुद्ध के साथ-साथ चार्वाकों, जैनियों, सिद्धों, नाथों आदि ने भी ब्राह्मणवादी विचारधारा के विभिन्न पक्षों का विरोध किया. जनसाधारण के पक्ष में लोकतांत्रिक चेतना के विस्तार और प्रसार में इन समुदायों की अहम भूमिका रही है. इसके बाद एक प्रबल जनपक्षधर आंदोलन का दौर चला जिसकी शुरुआत रैदास और कबीर से हुई. इस निर्गुण भक्तिधारा ने मध्यकाल में कारीगर जातियों के उत्थान और समृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ब्राह्मणवादी और जातिवादी चेतना पर इनके हमले बेहद तीखे थे.

इसके बाद अंग्रेजों का शासन आया. अंग्रेजों को सेना के लिए सिपाही चाहिए थे. उन्होंने अछूतों को सेना में भरती किया जिससे दलितों और पिछड़े वर्गों में शिक्षा का प्रसार होना शुरू हुआ. इसी समय में एक और महापुरुष हुए ‘महात्मा जोतिबा फुले’, जिन्होंने शूद्रों और अछूतों में शिक्षा के प्रचार और प्रसार को ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया. उन्होंने ब्राह्मणवादी शोषण को बेनकाब करने के लिए कई नाटक लिखे, लेख और पुस्तकें लिखीं.

इस सारे प्रयासों को समेटते हुए, ज्ञान, समता, मानव अधिकार और स्वतंत्रता के सभी पक्षों का पूर्ण विकास करते हुए एक महामानव हमारे बीच आए—बाबा साहेब डॉ. भीम राव अंबेडकर. वे बहुमुखी प्रतिभाशाली, उच्च कोटि के विद्वान, महान स्वतंत्रता सेनानी और दलित वर्गों के मुक्तिदाता थे. हजारों साल के ज्ञान को निचोड़कर उन्होंने मानव समता का रास्ता सामने रखा. समाज, धर्म, अर्थ, राजनीति, मानवता, स्वतंत्रता, समानता सभी पक्षों पर उन्होंने महान ग्रंथ रचे. और इस देश के बहुसंख्यक पिछड़े, दलित वर्गों के लोगों, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को मुक्ति का रास्ता दिखाया.

उनके भाषणों, लेखों और पुस्तकों से सारे देश के दलित वर्गों में उत्साह का संचार हो गया. अपनी बात को लोगों के बीच ले जाने के लिए उन्होंने समाचारपत्र प्रकाशित किए. सबसे पहला समाचार पत्र ‘मूकनायक’ 1920 में निकला. यहीं से दलित चेतना का आरंभ माना जा सकता है. उनके नेतृत्त्व में किए गए लाखों लोगों के संघर्षों और कुर्बानियों से दलित वर्गों के बीच शिक्षा का प्रसार हुआ. और दलित वर्गों के शिक्षित लोगों ने अपनी दशा सुधारने के लिए कलम का सहारा लिया. जिससे अंबेडकरवादी साहित्य की शुरुआत हुई.

इस आंदोलन ने विश्व स्तर पर चल रहे काले साहित्य से भी प्रेरणा प्राप्त की. ब्लेक पैंथर और ब्लेक लिटरेचर की तर्ज पर हमारे यहाँ दलित पैंथर और दलित साहित्य आए. दलित साहित्य यानी दलित वर्गों के लोगों द्वारा रचा गया साहित्य. इसका प्रेरणास्रोत डॉ. अंबेडकर का स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का दर्शन ही था. इस आंदोलन की दलितों में बढ़ती पैठ से घबरा कर ब्राह्मणवादी, पूँजीवादी और साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपनी कुटिल चालों से इस साहित्यिक आंदोलन में जातिवादी तत्वों को बढ़ावा दिया. नतीजतन ‘जय भंगी, जय चमार’ जैसी किताबें छपने लगीं. बाबासाहेब का स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का सपना कहीं पीछे छूटता लगने लगा.

इस दशा पर पूरे भारत के लोगों के बीच चिंतन हुआ कि इस स्थिति से कैसे निबटा जाए. प्रतिबद्ध विचारकों ने बाबासाहेब के साहित्य में शरण ली और वहीं से इसका जवाब सूझा कि हमारे साहित्य का केवल दलित वर्ग के द्वारा लिखा होना ही काफी नहीं है, इस साहित्य को भगवान बुद्ध, कबीर, जोतिबा फुले और बाबा साहेब आदि के दिखाए मार्ग पर भी चलना होगा. साथ ही दलित वर्गों के बाहर स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों, प्रगतिशीलों और धर्मनिरपेक्षों आदि में जो लोग समानता के समर्थक और जातिवाद के विरोधी हैं, उन्हें भी अपनी लड़ाई में शामिल करना होगा.

चूँकि आज के युग में पूरे भारत और समूचे विश्व की प्रगतिशील चिंतनधारा डॉ. अंबेडकर में पूँजीभूत होती है, और सभी विषयों पर प्रस्थान बिंदु उपलब्ध कराती है. इसलिए इसे नाम दिया—‘अंबेडकरवादी साहित्य’. ‘अपेक्षा’ ने 2004 में अपने संपादकीय का शीर्षक दिया—अंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा. इस संपादकीय में दलित चेतना के जाति-चेतना में बदल जाने और जाति-चेतना के राजनीतिकरण के खतरे का मुकाबला करने के लिए डॉ. अंबेडकर की सम्यक दृष्टि को इस प्रकार प्रस्तुत किया—‘अंबेडकरवाद जाति की श्रेष्ठता, शुद्धता और पवित्रता के जातिशास्त्र का विनाश करके समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे जनवादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर समाजशास्त्र का नया सिद्धांत प्रतिपादित करता है जिसे अंबेडकरवादी समाजशास्त्र कहा जाता है. इसलिए अंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा का आधार अंबेडकरवाद है, अंबेडकरवादी चिंतन है, अंबेडकरवादी समाज-दर्शन है और अंततः अंबेडकरवाद की सम्यक दृष्टि है.’

अपेक्षा के साथियों ने अपनी पत्रिका को अंबेडकरवादी साहित्य का मुखपत्र घोषित किया. तब से यह निरंतर अंबेडकरवादी साहित्य की मशाल ले कर चल रही है. धीरे-धीरे यह शब्द राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति हासिल करता जा रहा है. इसी कड़ी में 2007 में अंबेडकरवादी विचारधारा के लेखकों की कहानियों का एक संकलन निकला, जिसमें अंबेडकरवादी विचारधारा में पगे रचनाकारों और रचनाओं को शामिल किया गया.

अंबेडकरवादी साहित्य की सबसे मूलभूत विशेषता ब्राह्मणवादी सोच को बेनकाब करना है. ब्राह्मणवादी सोच यानी किसी को जन्म के आधार पर विशेषाधिकारों से संपन्न कर देना, उसे देवता का दर्जा दे देना, चाहे वह कितना ही बेकार, अज्ञानी, कुटिल ही क्यों न हो. यह सोच केवल ग्रामीण या अनपढ़ लोगों में ही नहीं है, बल्कि स्कूलों के प्रधानाचार्यों तक में है. इसी चीज को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है विपिन बिहारी ने अपनी कहानी ‘आपकी जात छोटी है’ में. इस कहानी में एक अमीर स्कूल के छात्रावास में रह रहे लड़कों की जातिवादी मानसिकता तो उजागर होती ही है, जो नितांत का ऐसे प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ना बर्दाश्त नहीं कर पाते, उन्हें तो एक शैड्यूल्ड कास्ट दीन-हीन मैला कुचैला ही भाता है, वही उनके अहं को तुष्टि देता है. यदि कोई सुखी घर का लड़का, जो पढ़ाई और खेलों में उनके वर्चस्व को चुनौती भी दे, वह उनके बर्दाश्त के बाहर होता है. पर इससे भी दुखद आश्चर्य तो तब होता है, जब उनका प्रधानाचार्य सही का पक्ष लेने के बजाय नितांत को ही समझाता है कि तुम्हें ऐसे स्कूल में नहीं पढ़ना चाहिए. और सवर्ण लोगों से हार जाना चाहिए ताकि वे तुमसे नाराज न हो जाएँ. लेकिन इस कहानी की असल चीज़ है ललित का अपने बेटे को कहना कि “डरना नहीं, बेटा, जितना डरोगे, उतना ही डराएँगे तुम्हें.”

सत्ता का नशा आदमी को इतना मगरूर कर देता है कि वह अपने से कमज़ोर के साथ जानवर से भी बदतर बर्ताव करने लगता है, उसकी मानवता मर जाती है. ब्राह्मणवादी सोच ने सत्ता के नशे में लाखों करोड़ों लोगों को अनपढ़ और रोटी-रोटी का मोहताज रखा. इसे ईश्वर की मर्जी बताया और मनमानी लूट की. आज भी गरीबों और मजलूमों को कीड़े-मकोड़े मानने की सोच सत्ताधीशों में जब तब दिखाई पड़ जाती है. ‘बाढ़ में वोट’ इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इस कहानी में रतन कुमार सांभरिया वर्णवादी भेदभाव के प्रति विद्रोह की अंबेडकरवादी चेतना का विस्तार कर उसमें सत्ताधारी वर्ग की अहमन्यता और लोगों को कीड़े-मकौड़े मानने वाली सोच के प्रति विद्रोह के आयाम को जोड़ते हैं. इस कहानी में वे पीड़ित वर्ग की जाति बता कर उसे सतही दलित कहानी बनाने के मोह में नहीं पड़ते, बल्कि वे पाठक के मन पर यह छाप छोड़ने में सफल होते हैं कि सभी उत्पीड़ित दलित हैं. सबकी पीड़ा उतनी ही खरी है फिर चाहे उनका धर्म, लिंग या जाति कुछ भी हो. इसलिए सबको मिलकर ‘आकाओं’ और ‘प्रजाओं’ की इस व्यवस्था को बदलने की ज़रूरत है. दलित की परिभाषा में सभी उत्पीड़ितों को शामिल करना अंबेडकरवादी विचारधारा का सही दिशा में विकास करना है, उसे संकीर्णता से मुक्त करना है.

डॉ. अंबेडकर की विचारधारा से प्रेरित हो दलित वर्गों में आत्म सम्मान हासिल करने की आकांक्षाओं पैदा हुई है लेकिन अपनी गरीबी के कारण उन्हें बार-बार समझौते करने पड़ते हैं. पुन्नी सिंह आकांक्षाओं और मजबूरियों के अंतर्द्वंद्व को अपनी कहानी ‘बच्चे जो स्कूल जाते हैं’ अभिव्यक्त करते हैं. इस कहानी में बाप अपनी माली हालत और ऐबों के चलते अपने बेटे को सुअर काटने के पुश्तैनी काम में लगाना चाहता है, उसकी लानत-मलामत भी करता है, उसे सुअर काटने में दक्ष होते देख असुरक्षित भी महसूस करता है, लेकिन आखिर में आत्म सम्मान हासिल करने का आकांक्षा की ही विजय होती है—‘देख, एक बात तू मेरी मान लेना, तू स्कूल मत छोड़ना.’ अंततः बच्चे को पढ़ाने का सपना जीतता है. कहानी बहुत ही मार्मिक बन पड़ी है.

वरिष्ठ अंबेडकरवादी लेखिका सुशीला टाकभौरे अपनी कहानियों में जाति के उत्पीड़न के साथ पुरुषवादी मानसिकता के कारण होने वाले उत्पीड़न का आयाम भी जोड़ती है. इस संकलन की उनकी कहानी ‘रामकली’ एक ओर घुमंतू जाति की स्त्रियों के शारीरिक शोषण की मानसिकता को उजागर करती है वहीं ‘कंजर’ समुदाय में व्याप्त स्वाभिमान को भी रेखांकित करती है. ये स्वाभिमान ही असल चीज़ है. यही एक दिन इस दुनिया को बदलेगा. अछूत प्रथा इसी स्वाभिमान को तोड़ने के लिए बनाई गई थी. कितने सुखद आश्चर्य की बात है कि शासक वर्गों के लाख प्रयासों के बावजूद ये स्वाभिमान है कि कम ही नहीं होता, रह रह कर सामने आ जाता है.

अंबेडकरवादी चिंतन का विरोध ब्राह्मणवादी चिंतन से है, ब्राह्मण जाति के लोगों से नहीं. शिक्षा और राजनीतिक चेतना ने कम ही लोगों में सही, पर सवर्ण वर्ग के लोगों में भी मानवतावादी चेतना पैदा की है. जब तक सवर्ण और अवर्ण लोगों में मिलकर एक समतावादी जातिहीन समाज बनाने की चेतना पैदा नहीं होगी, तब तक ऐसा समाज बनना मुश्किल ही है. ब्राह्मण वर्गों के प्रति आक्रोश अक्सर ब्राह्मण जाति के प्रति आक्रोश में बदल जाता है. तब ऐसे वाक्य निकलते हैं—‘कबीर का गुरु एक भुनगा या कुत्ता हो सकता है, परंतु एक ब्राह्मण कभी नहीं हो सकता.’ यहाँ सवाल यह नहीं है कि ऐसा हो सकता है या नहीं, यहाँ सवाल है कि जब हम ब्राह्मण जाति के लोगों से नफरत करते हैं, और उनकी अच्छाइयों को भी देखने को तैयार नहीं होते तो क्या एक तरह से हम जातिवाद यानी ब्राह्मणवाद को ही मजबूत नहीं कर रहे होते. अंबेडकरवादी चिंतन सम्यक दृष्टि में विश्वास करता है, जातिवादी दृष्टि में नहीं, इसीलिए वरिष्ठ रचनाकार बुद्ध शरण हंस की कहानी ‘आकाश मेरे पास’ में सब्जी वाली चंपा की, जो सफाईकर्मी समुदाय से है, सच्ची लगन, मेहनत और ईमानदारी देख कर डॉ. शंकर उपाध्याय मेडिकल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी में उसके बेटे का मार्गदर्शन करते हैं जिसके कारण वह सफल हो जाता है. जहाँ यह कहानी एक माँ के सपने के हकीकत में बदलने की कहानी है वहीं यह एक ब्राह्मण के मानवीय पहलू को भी उजागर करती है. और यह मानव के बेहतर होते जाने के प्रति भरोसा भी जगाती है.

जब से नौकरियों में एससी एसटी का आरक्षण शुरू हुआ है, लगभग तभी से नकली एससी प्रमाणपत्र बनवा कर नौकरियाँ हासिल करने वाले धूर्त लोग भी रहे हैं. जब कभी कभार इनके बारे में शिकायत मिलती है तो सरकारी तंत्र का रवैया मामला टरकाने और टालने का रहता है. इनकी इंक्वारियाँ 20-25 साल तक चलती रहती हैं. तब तक नकली प्रमाणपत्र के आधार पर नौकरी हासिल करने वाला आदमी रिटायर हो लेता है. इतनी देर से आने वाले फैसले इन्हें बेमानी बना देते हैं. इसी समस्या पर केंद्रित है श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कहानी ‘होनहार बच्चे’. इस कहानी में नकली प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए सवर्ण कहीं किसी गरीब लाचार एससी को अपना बाप बना लेते हैं तो कहीं किसी मजबूर एससी को पति बना लेते हैं. ऊपर से इन वर्गों का दुस्साहस देखिए कि किस तरह छद्म विनम्रता में अपने स्वार्थ और इरादों को छुपाए रहते हैं.

शहरीकरण के बावजूद जाति-विद्वेष लोगों में समाया है. कई सवर्ण तो अपनी स्वच्छता के नखरों के पीछे अपनी छुआछूत की भावना को छिपाते हैं. वे खुद कष्ट उठाते हैं लेकिन दलित व्यक्ति का साथ गवारा नहीं कर पाते. इसी को बड़े ही सशक्त कथानक में बुना है रूप नारायण सोनकर ने अपनी कहानी ‘रैंडमाइज़ेशन’ में. यह कहानी चुनावों के समय चुनाव की ड्यूटी देते अधिकारियों और उनके मातहतों की है. जब वे चुनाव ड्यूटी के पहले वाली रात खाना खा रहे होते हैं, तो जैसे ही उनमें से एक ब्राह्मण अधिकारी को यह मालूम पड़ता है कि प्रेज़ाइडिंग अधिकारी मेहतर जाति का है तो वह एक ही मेज पर बैठकर खाना खाने से मना कर देता है, रात को घोर बारिश होने पर भी अपने प्रेजाइडिंग अधिकारी के साथ एक ही कमरे में सोने से इंकार कर देता है, सारी रात कष्टपूर्वक बरामदे में ही भीगते हुए गुजार देता है. लेखक ने ठीक ही नोट किया है कि ‘कट्टर धार्मिक’ प्रवृत्ति के कुछ अधिकारी सार्वजनिक जीवन में भी छुआछूत बरतते हैं.

जातिवाद को आर्थिक और सामाजिक आधार सामंतवाद ने उपलब्ध कराया है. भारतीय आधुनिकता की एक समस्या का एक कारण सामंतवाद का खात्मा न हो पाना है. इसके परिणामस्वरूप कभी दूसरी जाति में शादी करना, कभी दूसरी जाति के व्यक्ति से प्यार करना, कभी अपने ही गोत्र में शादी करना जैसी मामूली बातें हत्या और सामूहिक बलात्कार का कारण बन जाती हैं. ऐसी ही एक घटना को अपनी सशक्त लेखनी से प्रस्तुत किया है मुकेश मानस ने अपनी कहानी ‘अभिशप्त प्रेम’ में. अंतर्जाति विवाह किए राघौ भैया के बच्चा भी हो जाता है. उन्हें धोखे से गाँव में बुलाया जाता है और उनकी पत्नी और बच्चे की नृशंस हत्या कर दी जाती है. दुखद यह है कि यह हत्या करने वाले कोई अपराधी प्रवृत्ति के इक्का दुक्का लोग नहीं होते, बल्कि आम लोग होते हैं, जिनके भीतर अपने धर्म, अपनी जाति, अपने रिवाजों का इतना मोह और भय बैठा है कि वे इन हत्याओं और बलात्कारों के मूक दर्शक ही नहीं होते बल्कि जंगलियों की तरह उसका उत्सव भी मना रहे होते हैं. सचमुच जुगुप्सा पैदा होती है कि जिस धर्म और सभ्यता ने इतने अमानवीय संस्कार दिए हैं क्या उसे सचमुच धर्म या सभ्यता कहा जा सकता है. कब इन लोगों में इतना साहस पैदा होगा कि वे इस अमानवीय धर्म और सभ्यता को छोड़ सम्यक दृष्टि अपनाएँगे.

बाबू राव बागुल की एक कहानी है ‘जब मैंने अपनी जाति छिपाई’. दलितों को जब शहर में नौकरियाँ मिलीं, लेकिन नौकरी के हिसाब से सही इलाकों में रहने को घर नहीं मिले तो जाति-अपमान से बचने के लिए उन्होंने अपनी जाति छिपाईं. उन्होंने अपने नामों के आगे अरोड़ा, आहूजा, शुक्ला, श्रीवास्तव जैसे जातिसूचक शब्द भी जोड़ लिए ताकि वे अपनी सही पहचान को छिपाकर दिन प्रतिदिन के अपमान से बच सकें. युवा कहानीकार अजय नावरिया ने अपनी ‘मुखौटे’ कहानी की विषयवस्तु इसी को बनाया है. नायिका की एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी लगती है. जब स्कूल की अन्य अध्यापिकाएँ उससे कुरेद कुरेद कर उसकी जाति के बारे में पूछताछ करती हैं तो वह हताश हो जाती है. अगले दिन जब वह नौकरी का इस्तीफा लेकर प्रिसिंपल से मिलती है तो उसे पता चलता है कि उसके साथ ही अधिकांश अध्यापिकाएँ शुक्ला, सैनी, शर्मा जैसे सरनेम होने के बावजूद असल में दलित ही हैं. तो वह चकित रह जाती है. अजय नावरिया की इस कहानी का अंतिम वाक्य है—‘उसने बढ़ कर हाथ थाम लिया था. एक चिड़िया, रोशनदान पर बैठी, रोशनी में नहा रही थी.’ क्या सवर्णों के जातिसूचक शब्द लगा कर ही दलितों की मुक्ति का रास्ता खुलेगा. डर और खौफ के कारण जाति छुपाना तो क्षम्य हो सकता है, परंतु अपनी जाति छुपाने को मुक्ति का दर्शन बना देना, यह चाहे और जो कुछ हो, अंबेडकरवाद तो नहीं हो सकता.

इसके बरक्स अनिता भारती की ‘एक थी कोटे वाली’ की नायिका ‘गीता’ बाबासाहेब के चिंतन की छत्रछाया में पली-बढ़ी है, इसलिए उसे न अपने बारे में कोई ग़लतफहमी है, न स्कूल की सवर्ण अध्यापिकाओं से कोई अपेक्षा है. जब मिसेज सागर को उसने बताया कि वह अंबेडकरवादी है तो अन्य दलित अध्यापिकाओं में खुशी की लहर दौड़ गई. गीता ने अध्यापन का काम इसलिए चुना था कि कम से कम इस पेशे में जातिवाद नहीं होगा, पर अन्य शिक्षिकाओं में जातिवाद देख कर उसने उन्हें ललकारा, उसके ललकारते ही अन्य दलित शिक्षिकाएँ भी अपना आक्रोश व्यक्त करने लगीं. और उनकी संगठित शक्ति से बिना कोटेवालियाँ हतप्रभ हो गईं. यही है असली अंबेडकरवाद—संगठित शक्ति और मुकाबला करने का साहस.

‘साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होता है.’ ऐसी किताबें पढ़कर और उनकी विश्वविद्यालय के अध्यापकों द्वारा की गई व्याख्याएँ, बहसें पढ़कर सुनकर ही हमारी पीढ़ी ने लोकतंत्र और समानता के संस्कार ग्रहण किए. हमें अपने अध्यापकों पर गर्व होता था. परंतु प्रगतिशील खेमें में भी लड़ाई का मुख्य कारण कबीर या तुलसी की काव्यचेतना न हो कर, ब्राह्मण या क्षत्रिय होना है, जब यह जाना तो ऐसा लगा जैसे, हरिशंकर परसाई के शब्दों में, मुझे किसी एंबुलेंस ने कुचल दिया हो. जातिवादी उत्पीड़न के ऐसे महीन अहसास को अपनी सशक्त कलम से बुना है रजनी दिसोदिया ने ‘एक ग़ैर-साहित्यिक डायरी’ को. बड़े ही शालीन मज़ाकों के सहारे जब ब्राह्मण और क्षत्रिय अपनी प्रशंसा करते हैं तो दलित छात्रों या शिक्षकों पर क्या गुज़रती है, इसका बड़ा ही मार्मिक चित्रण है इस कहानी में. लेखिका को कबीर के विद्वान के ब्राह्मणवादी फिकरे ठीक ही बहुत तकलीफ पहुँचाते हैं. इसमें से निकलने का रास्ता उसके पति के इन शब्दों में व्यक्त होता है—‘उन्हें मानने दो जो वे मानते हैं. बस अपनी मेहनत व संघर्ष की क्षमता पर विश्वास रखो’.

शासक वर्ग की विचारधारा सबसे अधिक मुखर रूप में शंकराचार्य के वेदांत में व्यक्त होती है. शंकराचार्य ने एक सूत्र दिया कि व्यवहारिक सत्य और परमार्थिक सत्य अलग-अलग होते हैं, यानी आप परमार्थ में सभी जीवों में एक आत्मा के निवास को मानते हुए भी व्यवहार में वर्णाश्रमी भेदभाव को मानते रह सकते हैं. यह पाखंड आज भी हमारे उच्च मध्यवर्ग में चला आ रहा है. भारत के उच्च मध्यवर्ग के लोग, चाहे उनकी विचारधारा क्रांतिकारी ही क्यों न हो, अपनी सुख-सुविधाओं को हासिल करने में पीछे नहीं रहते. और अपने लोभ-लालच को सही ठहराने के लिए तरह-तरह के तर्क भी गढ़ लेते हैं. यही बात निम्न मध्यवर्ग के लोगों के मन में बेहद क्षोभ पैदा करती है. उनका अपनी मेहनत का फल भी हासिल न कर पाना और तथाकथित क्रांतिकारी नेताओं का सारी सुख-सुविधाओं वाला जीवन जीना. निम्न मध्यवर्ग के रंजन दुनिया भर के सपने देखते हैं, सुख-सुविधाओं की लालसा करते-करते गंदी बस्ती में अपने दिन काटते हैं. रंजन के जरिये मध्यवर्गीय नैतिकता की पड़ताल करते हैं टेकचंद अपनी कहानी ‘सुअर क्लास’ में. रंजन अपनी ज़ुबानी क्रांति में सारे नेताओं की पोलपट्टी खोलता है, लेकिन खुद भी नशे में चूर कीचड़ में जा गिरता है. रंजन की हालत देख कर लगता है कि हमारा लेखकगण जिस क्रांति का बिगुल बजाते रहते हैं, वह आखिर हो क्यों नहीं पा रही है. मध्यवर्गीय रंजन में नैतिक बल का अभाव ही उसकी सीमा है, उसके पतन का कारण है, केवल विचारों के क्रांतिकारी होने से कुछ नहीं होता, उन्हें साकार करने का नैतिक बल भी होना जरूरी है.

दलित परिवारों में शिक्षा के कारण जागृति तो आई है, लेकिन अभी भी परंपराओं के नाम पर अंधविश्वास घर किए बैठे हैं. इन अंधविश्वासों और पुरानी मान्यताओं का सबसे अधिक शिकार महिलाएँ बनती हैं. रजत रानी ‘मीनू’ की कहानी ‘वे दिन’ इसी विषय पर है. अच्छे घर यानी संपन्न घर में शादी करने के लिए अंजू के पिता उसके दसवीं की परीक्षा देने तक का इंतज़ार नहीं कर पाते. ससुर और देवर की मदद से वह पेपर देती है और दसवीं पास करती है. लेकिन जब इंटर करना चाहती है, तो उसका पति उसे आगे पढ़ने नहीं देता. इस तरह पढ़ा लिखा दलित स्त्री की शिक्षा और आत्मसम्मान के रास्ते में आ जाता है. और जब उसके बच्चे बड़े हो जाते हैं तो उसे अपने रास्ते से हटाने के लिए उस पर चरित्रहीनता का आरोप लगा देता है. और उसे घर से निकाल देता है. रजत रानी ‘मीनू’ की यह कहानी दलित पुरुषों की पितृसत्तात्मक प्रवृत्तियों को बेनकाब करती है.

सरकार ने दलितों की हालत सुधारने के लिए गाँवों में ज़मीनों के पट्टे दलितों को बाँटे. पहले तो बंजर ज़मीन के पट्टे बाँटे, जहाँ कहीं बाँटे भी तो उन्हीं को, जो उनके खेतों में बेगार करते थे. और जहाँ बँटे भी वहाँ उन ज़मीनों पर अधिकांश में शक्तिशाली जातियों का ही कब्जा रहा. इन पट्टों के पीछे के सपनों, दर्द और हताशा को अपनी सशक्त कलम से कृष्ण पाल ‘परख’ ने ‘पट्टा’ कहानी में उकेरा है. दलितों की आपसी रंजिशों और जाटों की कुटिल चालों ने किस तरह इस देश के लोकतंत्र को फेल कर दिया, यह कहानी पढ़ते-पढ़ते आँखों के सामने साकार होने लगता है. कानून बन जाना ही काफी नहीं है, समाज में जातिविरोधी लोकतांत्रिक चेतना का होना भी ज़रूरी है.

माँ की ममता की कहानियाँ सभी किताबों में भरी पड़ी हैं, निश्चय ही माँ के प्रेम से बढ़कर कोई प्रेम नहीं होता. ममता की ऐसी ही एक यशोदा कहानी है पूरन सिंह की ‘जब ममता शून्य हुई’. पंडिताइन को बच्चे नहीं होते थे. अपनी एक पुरानी परिचित नर्स से मिल कर अस्पताल से नवजात बच्ची को पालने के लिए ले आती है. पंडिताइन की ममता बरसाती नाले की तरह बाँध तोड़कर बह निकलती है. आठ दिन बीतते न बीतते बच्ची के माँ-बाप बच्ची को लेने आ जाते हैं. पंडिताइन गिड़गिड़ाती है, पैसे का लालच भी देती है. माँ बाप भी एक बार को मानने वाले ही होते हैं कि नर्स बता देती है कि इसके माँ बाप मेहतर हैं. यह पता लगते ही पंडिताइन एक झटके में बच्ची वापस कर देती है. ममता पर जातिवादी घृणा का ग्रहण लग गया था न.

दलितों में बाबासाहेब की शिक्षा के प्रचार से सबसे बड़ा काम यह हुआ है कि उनमें आत्मविश्वास जगा है. उन्होंने अपने गंदे धंधों को छोड़ कर साफ सुथरे धंधे अपनाए. अपना रहन सहन बदला. एक तरफ तो सवर्ण कहते हैं कि दलित गंदे रहते हैं इसलिए उनके साथ रहना या उन्हें छूना मुश्किल है, दूसरी तरफ जो दलित अपने खानदानी पेशों को छोड़ते हैं, गाँव देहात में जरूरत पड़ने पर उन्हें वही पेशा करने के लिए मजबूर किया जाता है. संत राम आर्य ने ‘कोल्हू के बैल’ में दर्शाया है कि बच्चे पढ़ लिख कर शहर चले जाते हैं लेकिन माँ बाप अपने पुराने धंधे का मोह नहीं छोड़ पाते और गाँव में ही रह जाते हैं. जब गाँव में ठाकुर को जच्चगी के समय जरूरत होती है, तो वह इन्हें जबर्दस्ती बुला भेजता है. न आने पर परिणाम भुगतने की धमकी तो होती ही है. जब तक ऐसा ही चलता रहेगा तब तक कैसे आएगा इस देश में सामाजिक लोकतंत्र.

अक्सर अच्छा पढ़ने वाले बच्चों को छात्रवृत्तियाँ या इनाम बाँटे जाते हैं. इनाम बाँटने वाले एक ही सदिच्छा से प्रेरित होते हैं कि गरीब और होनहार बच्चों की कुछ आर्थिक सहायता हो जाएगी. परंतु यह इनाम उन्हें कितना प्रेरित करता है और कितने ही बच्चे इनाम हासिल करने का सुख हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं इसे विषय बनाया है राजेंद्र बड़गूजर ने अपनी कहानी ‘इनाम’ में. सरपंच की ओर से घोषणा की जाती है कि जो भी बच्चा आठवीं क्लास में प्रथम आएगा उसे पंचायत की ओर से एक हजार रुपये का इनाम दिया जाएगा. यह बात चंद्रशेखर के दिल में बैठ जाती है और वह ठान लेता है कि चाहे कुछ हो जाए वह इस इनाम को हासिल करके ही रहेगा. लेकिन जब चंद्रशेखर प्रथम स्थान हासिल कर अपना इनाम लेने जाता है तो सरपंच साफ मुकर जाता है. सरपंच ने सोचा भी नहीं होता कि कोई दलित सारे गाँव में प्रथम आ जाएगा. इसलिए वह नाट जाता है. हताश बाप जब घर आता है, तो उसका दोस्त रग्घू लड्डू ले के आता है. चंद्रशेखर के प्रथम आने की खुशी में. एक की खुशी सारे दलितों की खुशी बन जाती है. इस तरह वे एक दूसरे की हौसला अफजाई करते हैं.

शहरीकरण का एक प्रभाव यह हुआ है कि मानव दूसरे की पीड़ा के प्रति संवेदनहीन हो गया है. अपनी संवेदनहीनता को तरह-तरह के बहानों के पीछे छिपाता है. उमेश कुमार सिंह की कहानी ‘जाति की भूल-भुलैया में पंडित जी’ में बस में यात्रा करती एक महिला के बीमार हो जाने के प्रति यात्रियों में फैली संवेदनहीनता को दर्शाया गया है. गरीब और लाचार दलित और चरित्रहीन होते हैं, यह मध्यवर्गीय मान्यता बस के मुसाफिरों में भरी हुई है और वे उस महिला की मदद करने के बजाय उसे चरित्रहीन ठहरा कर अपने अपराधबोध का शमन करते हैं. जब पता चलता है कि वह महिला एक ब्राह्मण पुत्री है तो जो पंडित ज्ञान बघार रहे थे कि भगवान की आरती छूट जाएगी, चुप्पी साध जाते हैं.

इंजीनियरी और डॉक्टरी के शिक्षा संस्थानों में भी जातिवाद पसरा पड़ा है. मामला रैगिंग को हो या वायवा का, हर जगह भेदभाव देखने को मिलता है. जाति के आधार पर गुट भी बन जाते हैं. अगर कॉलेज राजनीति में कोई दलित जीत गया तो सवर्णों का कहर लाचार दलितों पर बरसता है. इन्हीं किस्सों को जोड़कर कथा में ढाला है मुसाफिर बैठा ने अपनी कहानी ‘दरोगवा’ में. दलितों पर अत्याचार के बाद ऐसे में प्रिंसिपलों का व्यवहार खासा जातिवादी होता है. और वे आत्मसम्मान वाले दलितों का मानमर्दन करने का कोई मौका नहीं छोड़ते.

गाँव हो या शहर, दलितों पर अत्याचार अनाचार के किस्से हैं कि थमने में ही नहीं आते. बाबासाहेब की शिक्षा का एक असर यह हुआ है कि दलितों ने संगठित हो कर विरोध करना शुरू कर दिया है. अत्याचार का एक ही इलाज है कि उसका मुकाबला किया जाए. शीलबोधि अपनी कहानी ‘बस! हमें अब लड़ना है’ में हमें यही संदेश देते हैं.

जाति का जहर न केवल दलितों को दुख पहुँचाता है, वह दूसरों को भी अपना शिकार बनाता है. श्यामलाल राही की ‘विशेसर पंडित’ और आलोक कुमार सातपुते की ‘परिवर्तन’ कहानियाँ दर्शाती हैं कि इनके शिकार सवर्ण यहाँ तक कि ब्राह्मण भी हुए हैं. गरीबी और अभावों भरी जिंदगी जीने वाले विशेसर पंडित जात-पात, ऊँच नीच में ज्यादा विश्वास नहीं करते थे. गरीब ब्राह्मण का दलितों से मेल हो जाता है. यह कहानी एक तरह से वर्ण पर वर्ग के हावी होने को प्रमाणित करती है. आलोक कुमार सातपुते तो गरीबी और अभाव के कारण अपनी बेटी के लिए एक दलित युवक को वर स्वीकारने वाले तिवारी की कथा है. काफी उहापोह के बाद तिवारी दलित युवक को अपना लेते हैं. हालाँकि कई दलित इस बात का विरोध करते हैं, पर जाति तोड़ने की बुनियादी शर्त ही है कि दलितों और गैर दलितों में अंतर्जातीय विवाह हों. सवर्णों में उदारता आए. सवर्णों की उदारता में हर जगह कुटिलता ढूँढना बाबासाहेब के स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के आदर्श के खिलाफ है.

जातिवाद का विराट शरीर है, उसकी हजारों बाहें, सैंकड़ों मुख हैं. इन मुखों से वह कहीं उदारता, कहीं कट्टरता, कहीं समानता, कहीं यज्ञों से वातावरण के शुद्ध होने, कहीं परधर्मियों की आलोचना करने तो कहीं संस्कृत का गुणगान करता रहता है. हजारों भुजाएँ नाना प्रकार के हथियारों से सुसज्जित हैं. किसी में कानून, किसी में बाजार, किसी में धर्म, किसी में रक्त की शुद्धता, कहीं भिक्खुओं का अपमान तो कहीं पंडितों का गुणगान. डॉ. अंबेडकर का महत्व इस बात में है कि उन्होंने अपने विराट साहित्य में इस जातिवाद के शरीर, इसकी आत्मा, इसकी नाना कुटिलताओं, अनाचारों को खोल कर रख दिया है. अंबेडकरवादी साहित्य इस जातिवाद के विभिन्न रूपों, आयामों, प्रकारों, किस्मों से हर स्तर पर मोर्चा लेता है. यही कारण है कि इस साहित्य में सवर्ण दृष्टि से ग्रस्त आलोचकों को कभी गंभीरता की कमी दिखती है तो कभी कला पक्ष कमज़ोर दिखता है. कभी इनका संघर्ष मार्क्सवादी समाजवाद के खिलाफ दिखता है तो कभी सांप्रदायिकता के पक्ष में. जो नहीं दिखता वह है अंबेडकरवादी लेखकों की इस देश के वर्ग संघर्ष के प्रति सजगता. और उसमें अपने यानी सर्वहारा के पक्ष में सशक्त ढंग से खड़े होने की पुरजोर कोशिश. इसी संघर्ष को आगे बढ़ाती हैं ये अंबेडकरवादी कहानियाँ. हमें विश्वास है कि इस संग्रह के लेखक और अन्य लेखक भी इस अंबेडकरवादी चेतना का प्रसार करेंगे और इस देश में सच्चे समाजवाद की चेतना के प्रसार में अपना योगदान देंगे.