18 September, 2008

संस्कृत का गुणगान -- राष्ट्रवाद या ब्राह्मणवाद

इस देश के अधिकतर पढ़े-लिखे लोग भारत की महानता की कुँजी संस्कृत को मानते हैं. औरों की तो बात ही क्या एस.जी. सरदेसाई जैसे बड़े मार्क्सवादी भी इस बात की सिफारिश करते हैं कि यदि इस देश में क्रांति करनी है तो संस्कृत को सीखना होगा. प्रखर मार्क्सवादी आलोचक डॉ.रामविलास शर्मा तो संस्कृत के साथ-साथ वेदों की ओर लौटने का आह्वान करने लगे थे. तो फिर स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती इसका मुक्तकंठ से गुणगान करते हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है. इसके बरअक्स, भारत की लोक-ज्ञान परंपरा प्रारंभ से ही वेदों की अपौरुषेयता और पवित्रता को चुनौती देती रही है. सब जानते ही हैं कि पुराने समय में नास्तिक का भगवान को न मानने वाले को नहीं, वेदों की निन्दा करने वाले को कहा जाता था. चार्वाकों से लेकर भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी से होते हुए, सिद्धों और नाथों की पूरी परंपरा, मध्य काल में निर्गुण संत कबीर और रैदास से आधुनिक युग में जोतिबा फूले और डॉ.अंबेडकर तक सभी एक स्वर से वेदों की अपौरुषेयता और पवित्रता को नकारते हैं, उसके वर्चस्व को चुनौती देते हैं.


वेदों के साथ-साथ संस्कृत की उपेक्षा भी आपको लोक-ज्ञान परंपरा में मिलती है—‘संस्कीरत है कूप जल, भाखा बहता नीर’. फिर भी कुछ लोग संस्कृत की महानता का राग आलापे चले जा रहे हैं. पिछले 100 सालों में इतने शोध हुए हैं, इतनी नई-नई बातें सामने आई हैं लेकिन फिर भी हमारे ‘तथाकथित’ विद्वान, उच्‍च अधिकारी और राजनेता वजह-बेवजह संस्कृत की महानता का राग आलापने लगते हैं. संस्कृत की महानता का जादू इतना शक्तिशाली है कि वह जीवनभर शास्‍त्र परंपरा का विरोध और लोक परंपरा का गुणगान करने वाले हजारी प्रसाद द्विवेदी के मुख से भी प्रकट हो उठता है--

‘हिमालय से सेतुबंध तक सारे भारतवर्ष के धर्म, दर्शन, विज्ञान, चिकित्सा आदि विषयों की भाषा कुछ सौ वर्ष पहले तक एक रही है. यह भाषा संस्कृत थी. भारतवर्ष का जो कुछ श्रेष्ठ है, जो कुछ उत्तम है, जो कुछ रक्षणीय है, वह इस भाषा के भंडार में संचित किया गया है. जितनी दूर तक इतिहास हमें ठेलकर पीछे ले जा सकता है, उतनी दूर तक इस भाषा के सिवा हमारा कोई सहारा नहीं है... हमारे कम से कम छह-सात हजार वर्ष के विशाल इतिहास में अधिक से अधिक पाँच सौ वर्ष ऐसे रहे हैं जिनमें विदेशी भाषा (फारसी, अरबी) का आधिपत्य रहा. दुर्भाग्यवश इस सीमित काल और सीमित अंश में व्यवहृत भाषा का दावा आज हमारी भाषा समस्या का सर्वाधिक जबरदस्त रोड़ा साबित हो रहा है.. इस विशाल देश की भाषा समस्या का हल आज से सहस्रों वर्षों पूर्व से लेकर अब तक जिस भाषा के जरिए हुआ है, उसके सामने कोई भी भाषा न्यायपूर्वक अपना दावा लेकर उपस्थित नहीं रह सकती, फिर वह स्वदेशी हो या विदेशी, इस धर्म के मानने वालों की हो या उस धर्म के. इतिहास साक्षी है कि संस्कृत इस देश की अद्वित्तीय महिमाशालिनी भाषा है : अविजित, अनाहत और दुर्द्धर्ष.’(1)

अगर हम प्राचीन भारत के प्रति अंधश्रद्धा नहीं रखते और अपने आसपास की चीज़ों के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखते हैं तो हम बड़ी आसानी से देख पाते हैं कि इस एक पैराग्राफ में कितनी तथ्यात्मक भूलें हैं. लेकिन अचरज की बात यह है कि जिन हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी लेखनी से लोकधर्म और लोक संस्कृति की अमर महिमा का बखान किया है वे संस्कृत का गुणगान करते हुए क्योंकर अपने ही द्वारा उल्लिखित तथ्यों की अनदेखी कर जाते हैं. इसका क्या कारण है? आइए, यह जानें कि संस्कृत की महानता के बारे में क्या-क्या ऊँचे बयान जारी किए जाते हैं. और यह भी जानें कि ये बयान सत्यों और तथ्यों की कसौटी पर कितने टिक पाते हैं.

संस्कृत के बारे में सबसे ज्यादा प्रचार जिस बात का किया जाता है, वह इसकी प्राचीनता का है. कहा जाता है कि यह भारत की, कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि यह दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा है. तथ्यों को तटस्थता से देखने पर जाहिर होता है कि यह बात बिल्कुल ग़लत है. संस्कृत भारत की एकमात्र प्राचीन भाषा नहीं है. जिस समय वेद, पुराण, उपनिषद आदि लिखे जा रहे थे उस समय भी संस्कृत के अलावा अनेक भाषाएँ प्रचलित थीं. यह और बात है कि आज उन भाषाओं के उस समय के ग्रंथ, काव्य, अभिलेख आदि नहीं मिलते. पर इससे यह नतीजा निकालना एकदम ग़लत होगा कि उस समय दूसरी भाषाएँ थीं ही नहीं. उन दूसरी भाषाओं की मौजूदगी के कई प्रमाण दिए जा सकते हैं.

पहला, सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों में प्राप्त भाषा, जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका. इससे और कुछ साबित होता हो या न होता हो पर इतना तो साबित होता ही है कि वह भाषा चाहे कोई भी हो पर कम-से-कम संस्कृत नहीं है. यानी कि इस देश में संस्कृत के जन्म से पहले भी एक भाषा बोली जाती थी.

दूसरा, आज जब यातायात और परिवहन के साधन इतनी तेज गति वाले हो गए हैं कि सारी दुनिया सिकुड़-सी गई है तब भी इतनी सारी भाषाएँ मौजूद हैं और बोली तो कोस भर में बदल जाती है. तब यह कैसे माना जा सकता है कि जिस समय लोग पैदल या बैल गाड़ियों में यात्रा करते थे उस समय सारे भारत की बोलचाल की भाषा एक ही यानी संस्कृत थी. हम ज्यादा से ज्यादा यह मान सकते हैं कि उस समय का शासक वर्ग या पुरोहित समुदाय अपनी सुविधा के लिए एक भाषा का इस्तेमाल करता था, जिसे देश भर के अभिजात लोगों को सीखना पड़ता था. इसे सीखना पड़ता था, न कि यह उनकी मातृभाषा थी. यही सच भी था.

तीसरा, अगर किसी भाषा का लिखित साहित्य न मिले तो उसके अस्तित्व को ही नकार देना, ठीक नहीं है. आज भी सैंकड़ो ऐसी बोलियाँ या भाषाएँ हैं जिनका लिखित साहित्य तो दूर की बात, उनकी अपनी कोई लिपि तक नहीं है. फिर भी वे भाषाएँ हैं और उनके बोलने वाले भी हैं.

चौथा, संस्कृत साहित्य में स्त्रियों और शूद्र पात्रों के मुख से साधारण रूप से प्राकृत बुलवाई जाती है. इससे जाहिर होता है कि ये वर्ग संस्कृत नहीं जानते थे, इनकी अपनी भाषा थी, जो प्राकृत थी.

पाँचवाँ, संस्कृत ग्रंथों खासकर स्मृतियों से पता चलता है कि स्त्रियों, शूद्रों और अंत्यजों के संस्कृत पढ़ने पर रोक थी. यह बात बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे संस्कृत भाषा की सामाजिक भूमिका का भी पता चलता है. आप ही बताइए, जब यह भाषा समाज के ज्यादातर लोगों के लिए बोलना मना थी और वे लोग अगर गूँगे नहीं थे तो उनकी कोई भाषाएँ तो होंगी ही. और ये भाषाएँ निश्चित ही संस्कृत नहीं रही होंगी.

उपरोक्त तथ्यों और तर्कों के आधार पर हम कह सकते हैं कि संस्कृत भारत की एक मात्र प्राचीन भाषा नहीं थी.

संस्कृत के बारे में दूसरी बात यह कही जाती है कि सारी भारतीय भाषाएँ संस्कृत से ही पैदा हुई हैं. कहा जाता है कि वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत बनी. अनपढ़-गँवार लोगों के शुद्ध संस्कृत बोल पाने में असमर्थता के कारण यही विकृत हो कर प्राकृत बनी. प्राकृत भी आगे जाकर विकृत हुई तो उससे अपभ्रंश बनी और अपभ्रंश से विभिन्न आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे हिंदी, मराठी, बंगाली, गुजराती, पंजाबी आदि पैदा हुई हैं. यह बात एकदम बेबुनियाद है कि संस्कृत से सभी भाषाएँ पैदा हुई हैं. सच तो यह है कि हिंदी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास संस्कृत से नहीं, बल्कि उसके समकालीन बोले जाने वाली दूसरी भाषाओं से हुआ है. जैसाकि महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी ‘हिंदी भाषा की उत्पत्ति’ नामक किताब की भूमिका में कहते हैं—‘अब तक बहुत लोगों का ख़याल था कि हिंदी की जननी संस्कृत है. यह ठीक नहीं. हिंदी की उत्पत्ति अपभ्रंश भाषाओं से हैं और अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति प्राकृत से है. प्राकृत अपने पहले की पुरानी बोलचाल की संस्कृत से निकली है और परिमार्जित संस्कृत भी (जिसे हम आजकल केवल “संस्कृत” कहते हैं) किसी पुरानी बोलचाल की संस्कृत से निकली है. आज तक की जाँच से यही सिद्ध हुआ है कि वर्तमान हिंदी की उत्पत्ति ठेठ संस्कृत से नहीं.” (2)

यही बात‘हिंदी शब्दानुशासन’ की पूर्व पीठिका में आचार्य किशोरी दास वाजपेयी कहते हैं—
“हिंदी की उत्पत्ति उस संस्कृत भाषा से नहीं है, जो कि वेदों में, उपनिषदों में तथा वाल्मिकी या कालिदास आदि के काव्य-ग्रंथों में हमें उपलब्ध है. ‘करोति’ से ‘करता है’ कैसे निकल पड़ेगा? ... दोनों की चाल एकदम अलग-अलग है... (संस्कृत और हिंदी) दोनों का पृथक और स्वतंत्र पद्धति पर विकास हुआ है; परंतु हैं दोनों एक ही मूल भाषा की शाखाएँ. बहुत बड़ी-बड़ी शाखाएँ हैं ये, इतनी बड़ी कि तना कहीं दिखाई ही नहीं देता और इतना विस्तार कि कोई सहसा समझ नहीं पाता कि कहाँ से ये चली हैं. ... मूल भाषा का नाम तब ‘प्राकृत-भाषा’ रखा गया, जब कि उसका एक रूप ‘संस्कृत भाषा’ कहलाने लगा. वैदिक युग की प्राकृत का कुछ आभास हमें ‘गाथा’ में मिलता है. .. भारत के प्रदेशों में और छोटे-छोटे जनपदों में विभिन्न प्रकार की प्राकृत चल रही थी. भगवान महावीर ने और भगवान बुद्ध ने अपनी-अपनी ‘बोली’ में—अपनी-अपनी प्राकृत भाषा में—जनता को उपदेश दिए. इससे प्राकृत को बहुत बल मिला. महाराजा अशोक के समय प्राकृत राजभाषा हो गई. बुद्ध ने अपनी (मागधी) प्राकृत में ही जनता को उपदेश दिए जो आगे चल कर देश भर की संपत्ति हो गए और वे ऐसी प्राकृत में लिखे गए जिसे वास्तविक ‘मागधी’ नहीं कह सकते. उस प्राकृत का नाम आगे चल कर ‘पाली’ पड़ गया... बुद्ध के आगे-पीछे इस देश में जो प्राकृतें चल रही थीं वे द्वितीय अवस्था की हैं...आगे चल कर इनके रूपों का भी विकास हुआ और होते-होते इतना रूपांतर हो गया कि इस तीसरी अवस्था में आ कर रूप एकदम बदल गए. इन तीसरी प्राकृतों को, या प्राकृत की तीसरी अवस्था के रूपों को, ‘अपभ्रंश’ कहते हैं, जो ठीक नहीं. ‘तीसरी प्राकृत’ कहना ही ठीक है. ... देश भर में जो तीसरी प्राकृत के विविध रूप चल रहे थे, उनका आगे विकास हुआ और ये पूर्ण विकसित रूप ही आज की हमारी प्रांतीय या प्रादेशिक भाषाएँ हैं—बैसवाड़ी, अवधी, ब्रजभाषा, राजस्थानी, बँगला, मराठी, उड़िया, गुजराती आदि.”(3)

महावीर प्रसाद द्विवेदी या किशोरी दास वाजपेयी ही नहीं, राबर्ट काल्डवेल, माधव मुरलीधर देशपांडे, राजमल बोरा भी यही मानते हैं कि प्राकृत संस्कृत से पैदा नहीं हुई है. बल्कि वे इस भ्रम को हानिकारक भी मानते हैं—“संस्कृत और प्राकृत का आपस में संबंध जानने के लिए पहले तो हमें यह भ्रम दूर करना है कि संस्कृत से प्राकृत का जन्म हुआ है. इस भ्रम को पाले रखने से हमें बहुत हानि हुई है.”(4)

कहने का अभिप्राय इतना ही है कि हिंदी का विकास संस्कृत से न हो कर एक मूल लोकभाषा से हुआ था, जिससे संस्कृत का भी विकास हुआ था. फिर यह ग़लतफ़हमी कैसे फैली इसका एक कारण तो यह तथ्य है कि सभी भारतीय भाषाओं—जैसे बँगाली, हिंदी, मराठी, कन्नड़, तेलुगु आदि—में बड़ी संख्या में संस्कृत के शब्द पाए जाते हैं. इसका यह जवाब दिया जा सकता है कि चूँकि संस्कृत राजकाज और कर्मकांड की भाषा रही है. और यह स्थापित तथ्य है कि जो भी भाषा राजकाज, कर्मकांड या व्यापार की होती है, उसके शब्द जन भाषाओं में प्रचलित हो जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे आज अंग्रेज़ी के बहुत से शब्द अनपढ़ गंवार लोगों की समझ में भी बड़ी आसानी से आ जाते हैं और वे उनका इस्तेमाल भी करते हैं. अगर अंग्रेज़ी शब्दों के चलन के आधार पर कोई यह निष्कर्ष निकाले कि हिंदी आदि भाषाएँ अंग्रेज़ी से निकली हैं, तो कैसा लगेगा. यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि संस्कृत के बहुत से शब्द ऐसे हैं जो विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग अर्थ रखते हैं जैसे ‘चेष्टा’ हिंदी में प्रयास करना है और मराठी में मज़ाक उड़ाना.

दूसरे, संस्कृत जानने वाले पुरोहित वर्ग ने जानबूझकर दूसरी भाषाओं के ग्रंथ आदि नष्ट करवाए और हिंदुओं ने हिंदू धर्म न मानने वालों यानी बौद्धों, चार्वाकों आदि के सारे धर्म और विज्ञान आदि के ग्रंथ नष्ट कर दिए. आज उपलब्ध बौद्ध धर्म का सारा वाङ्‍मय तिब्बत आदि से खोज कर निकाला गया है या वहाँ उपलब्ध चीनी, भोट आदि भाषाओं से पालि में अनुवाद करके पुनः सृजित किया गया है. भारत में तो उनका कोई नामलेवा भी नहीं बचने दिया गया. संस्कृत बोलने वाले लोगों के घमंड और धूर्तता ने भारत का विपुल ज्ञान नष्ट करवा दिया.

संस्कृत के बारे में तीसरी बात यह कही जाती है कि यह एक विशुद्ध भाषा है, देववाणी है, इसने दूसरी किसी भाषा से कुछ ग्रहण नहीं किया. जबकि इस विषय में हुए आधुनिक अनुसंधान तो यह बताते हैं कि लौकिक संस्कृत की तो बात ही क्या वैदिक संस्कृत में भी दूसरी भाषाओं से बहुत कुछ लिया गया था. जैसाकि निम्‍नलिखित बातों से जाहिर होता है—

1. ए.एल. बाशम भारतीय भाषाओं में मौजूद मूर्धन्य ध्वनियों को द्रविड़ प्रभाव से जोड़ते हैं, वे कहते हैं—‘भारतीयों के लिए मूर्धन्य व्यंजन (ट, ठ, ड, ढ और ण) दंत्य व्यंजनों (त, थ, द, ध और न) से बिल्कुल भिन्न हैं,... मूर्धन्य ध्वनियाँ भारोपीय नहीं हैं और ये बहुत आरंभ में भारत के आदिवासियों, आद्यआग्‍नेय अथवा द्रविड़ों से ग्रहण की गई हैं.’(5)

2. वहीं विख्यात भाषाविद सुनीतिकुमार चटर्जी ऋग्वेद तक में अनार्य प्रभाव देखते हैं—‘इन अनार्यों से संपर्क तथा स्वाभाविक विकास के कारण आर्यभाषा में और भी परिवर्तन आ गए. धीरे-धीरे वह आर्य (या भारतीय-ईरानी) से भारतीय आर्य भाषा बनती चली गई, जिसका नवीनतम विकसित रूप ऋग्वेद की भाषा में मिलता है.’(6)

3. इसी बात को आगे बढ़ाते हुए के.एम.श्रीमाली कहते हैं कि—‘वैदिक साहित्य की तथाकथित संस्कत भाषा में न केवल द्रविड़ भाषा बल्कि प्राकृत भाषा के भी स्पष्ट प्रमाण हैं. ट, ठ, ड जैसी मूर्धन्य व्यंजनों की उपस्थिति द्रविड़ प्रभाव जबकि ऋ के स्थान पर ळ का प्रयोग प्राकृत प्रभाव माना जाता है.

4. कृषि संबंधी शब्दावली तथा पेड़-पौधों के लिए प्रयुक्त शब्दों से भी वैदिक साहित्य के रचना काल में विभिन्न भाषा-परिवारों का अस्तित्व दिखाई देता है.

5. सजातीयता संबंधी शब्द यथा चाचा के लिए काक्क अथवा काका का प्रयोग गैर-संस्कृत ही है.

6. ऋक्संहिता में मुंडा भाषा के तत्वों की खोज जारी है. भारत के मूर्धन्य भाषाविद स्वर्गीय सुनीति कुमार चटर्जी का तो यहाँ तक कहना है कि वैदिक काल से ही इंडो-यूरोपियन, द्रविड़ और मुंडा भाषा परिवारों के पारस्परिक संबंध इतने घनिष्ठ थे कि हम एक प्रकार की ‘भारतीय भाषा’ के अस्तित्व की बात कर सकते हैं.’(7)

राजमल बोरा ने राबर्ट काल्डवेल के ‘ए कंपेरेटिव ग्रामर ऑफ द द्रविडियन एंड साउथ इंडियन फैमिली ऑफ लैंग्वेजेज़’ और माधव मुरलीधर देशपांडे की ‘संस्कृत आणि प्राकृत भाषा’ आदि के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि--“संस्कृत भाषा ने भारतवर्ष की प्रायः सभी भाषाओं के शब्द-समूह को अपनाया और आत्मसात कर लिया है. पता ही नहीं चलता कि ये शब्द संस्कृत में कहाँ से आए. बात यह है कि हम सब संस्कृत को मूल माने हुए हैं. इस प्रकार की धारणा का अंत होना चाहिए.”(8)

जब यह बात बिल्कुल साफ है कि एक, संस्कृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा नहीं है; दो, भारत की आधुनिक भाषाएँ संस्कृत से पैदा नहीं हुई हैं और तीन, संस्कृत ने भी दूसरी भाषाओं से काफी कुछ ग्रहण किया है. न केवल यह, बल्कि यह भी कि हमारी आधुनिक भाषाएँ संस्कृत का विरोध करने के कारण ही पनपीं और अपना अस्तित्व बचा पाई हैं. तो फिर हमारे अधिकतर विद्वान और राजनेता संस्कृत को प्रतिष्ठित करने के लिए झूठ पर झूठ क्यों दोहराए जाते हैं.

एक और बात, हमारा अभिजात वर्ग संस्कृत की बात तो करता ही है, साथ ही संस्कृत साहित्य में व्याप्त असमानता और भेदभावपूर्ण मूल्यों के गुणगान में भी लगा रहता है. उनकी आलोचना या उन पर हल्की फुलकी छींटाकशी किए जाने पर भी हिंसक हो उठता है.

यहाँ हमें संस्कृत की सामाजिक भूमिका को देखना होगा. वैसे तो कोई भी भाषा पूरे समुदाय की भाषा होती है. लेकिन संस्कृत पूरे भारतीय/हिंदू समुदाय की भाषा नहीं है और न ही यह कभी पूरे भारतीय समुदाय की भाषा रही है. जो भाषा पूरे समुदाय की भाषा न हो, केवल अभिजात वर्ग की भाषा हो, वह एक प्राकृतिक भाषा कभी नहीं हो सकती. संस्कृत को अपने ही समुदाय के शूद्रों, अतिशूद्रों आदि के बोलने पर रोक लगाई गई थी.

संस्कृत के आम बोलचाल की भाषा न होने का एक सबूत यह भी है कि मानव जीवन के अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर बोलते समय संस्कृत भाषा गूँगी और बहरी हो जाती है. जब मजदूरों और किसानों को इसकी जरूरत पड़ती है, तो कन्नी काट जाती है. पर पुरोहितों और शासक वर्ग की भाषा के रूप में यह इतना चिल्लाने लगती है कि दूसरी भाषाओं का अस्तित्व तक मिट जाए. जहाँ इसमें ब्रह्म, परमात्मा, आत्मा तथा परलोक के लिए शब्दों और अर्थों के सैंकड़ों भेद-उपभेद हैं वहीं मजदूर के लिए कोई शब्द नहीं मिलता. आजकल उपलब्ध ‘श्रमिक’ शब्द तो अंग्रेज़ी के ‘लेबर’ के लिए हाल ही में गढ़ा गया शब्द है. इसी तरह ‘बेलदार’, ‘मिस्त्री’ या इन लोगों के औजारों और इनकी जरूरत की चीजों के लिए संस्कृत में शब्दों का घोर अकाल है. इस भाषा में रोजी रोटी कमाने के लिए ‘आजीविका’ या ‘जीविकोपार्जन’ जैसे जटिल शब्द होना और भीख माँगने के लिए ‘दान’ जैसा सरल शब्द होना बताता है कि यह भाषा किस वर्ग के हित साधने के लिए बनाई गई और आज भी बरकरार रखी जा रही है. फारसी आदि विदेशी भाषाओं के वे शब्द ही हिंदी आदि भारतीय भाषाओं में खपकर लोकप्रिय हुए हैं जिनके लिए संस्कृत में कोई शब्द नहीं था या वे जबरन अनपढ़ रखे गए लोगों के लिए बोलने में बहुत कठिन थे.

यहाँ यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि राजा राममोहन राय ने तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम पिट को 11 दिसंबर, 1823 को लिखे पत्र में कहा था कि शिक्षा की संस्कृत भाषा की पद्धति इस देश को अंधकार में रखने का सबसे सरल रास्ता है. इस भाषा में शिल्पियों, कारीगरों, स्त्रियों, दासों सबको एक समान मान कर ताड़ना का अधिकारी बताया गया है. “इसमें उन्होंने लिखा था कि संस्कृत स्कूल की स्थापना से भारतीय युवकों के मस्तिष्क को व्याकरण की बारीकियों तथा पराभौतिक विभेदों से भर दिया जाएगा जो व्यक्ति और समाज में से किसी के भी लाभ मे नहीं है. शिक्षार्थी केवल वही जान सकेंगे जो भारतीय विद्वानों को दो हज़ार वर्षों से ज्ञात है. उस ज्ञान के बाद के लोगों द्वारा टीका-टिप्पणियों के रूप में की गई माथापच्ची भी जुड़वाई जाएगी. उन्होंने बताया कि संस्कृत भाषा इतनी कठिन है कि उसमें पारंगत होने के लिए किसी मनुष्य को लगभग अपना पूरा जीवन होम करना पड़ता है. तभी कुछ लोगों ने संस्कॉत के अध्ययन को केवल अपने स्वार्थ के हित साधन के लिए अपनाया था. संस्कृत की इसी दुरूहता के कारण ज्ञान को सामान्य लोगों के लिए सुलभ नहीं कराया गया था. सामान्य जनता को अशिक्षित रखने के लिए संस्कृतज्ञों के पास भाषा की दुरूहता का एक अच्छा बहाना मिल गया था. भाषा को सरल करने से ज्ञान सर्वसुलभ हो सकता था. इसलिए उन्होंने भाषा की दुरूहता को सामान्य जनता के विरुद्ध एक हथियार के रूप में प्रयोग किया था. फिर इस दुरूह भाषा में जो कुछ संग्रहीत था उससे शिक्षार्थी द्वारा किए गए परिश्रम की तुलना में कुछ विशेष लाभ नहीं था.” (9)

इन बातों को कृष्ण मोहन श्रीमाली के शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि—

1. संस्कृत भाषा कभी भी जन-जीवन की भाषा नहीं थी. यह सब जानते हैं कि कुछ अपवादों को छोड़कर इसके पढ़ने-पढ़ाने और कुल मिला कर शिक्षा ग्रहण करने के अधिकार पर ही समाज के उच्च वर्गों का अधिकार था.

2. वैदिक संस्कृति और भारतीय संस्कृति को एक मानने वालों का मत पुष्ट नहीं होता क्योंकि भारतीय संस्कृति का बहुत बड़ा हिस्सा ग़ैर-वैदिक है.

3. वैदिक संस्कृति को मात्र संस्कृत भाषियों की देन मानना भी ऐतिहासिक प्रक्रिया को नकारना होगा क्योंकि तत्कालीन समाज में अनेक ग़ैर-संस्कृत भाषियों की मौजूदगी को नकारा नहीं जा सकता.

4. आधुनिक भारत की लगभग सभी भाषाओं और लिपियों का जन्म कम से कम एक हजार साल पहले हो चुका था और स्वयं संस्कृत के प्रचार और प्रसार में इनका भी बड़ा हाथ रहा है.(10)

थोड़े में कहें तो संस्कृत दूसरों की कमाई पर पलने वाले अभिजात वर्ग की भाषा रही है और पालि, प्राकृत, अपभ्रंश से ले कर हिंदी, मराठी, तेलुगु, तमिल आदि भाषाएँ कमेरों, मजूरों, किसानों की भाषाएँ रही हैं. इसीलिए आम जनता से जुड़े शब्दों का इन भाषाओं में अथाह भंडार है. फिर भी संस्कृत का बेवजह का गुणगान क्यों?

जैसाकि हमने पहले भी कहा है संस्कृत का संबंध दूसरों की कमाई पर मौज-मेला करने वालों से था और उस समय यातायात के साधनों के अविकसित होने और हमारी अर्थव्यवस्था के ग्राम केंद्रित होने के कारण आम लोगों का आपस में मेल मिलाप नहीं था. उनकी भाषाएँ रोज़मर्रा के अनुभवों और जरूरतों तक सीमित थीं. जबकि शासक वर्ग की भाषा यानी संस्कृत, शासक वर्ग की जरूरतों के चलते ख़ासी विकसित हो गई थी. संस्कृत भाषा का विकास दर्शनशास्त्र में शून्यता और अनिर्वचनीयता तक पहुँचा तो काव्य में नारी-शरीर के अंग-प्रत्यंगों के चित्रण तक. जब अंग्रेज भारत में आए तो उन्होंने इस ‘अपने में खोई-अपने तक सीमित’ गाँव आधारित व्यवस्था को तोड़ डाला. यह काम उन्होंने राजनीतिक ताकत से कम, व्यापारिक कुटिलता से अधिक किया. व्यापार के विकास और नए किस्म के शासक वर्ग के उदय के साथ ही हम इन विभिन्न भारतीय भाषाओं को विकसित होता हुआ पाते हैं. वैसे इनका अस्तित्व कम से कम एक हज़ार पहले से मिलना शुरू हो जाता है. मुगल काल में जब आर्थिक प्रणाली में मनसबदारी प्रथा द्वारा दखल दिया गया और एक नई किस्म की व्यवस्था लाई गई उसी समय से हम इन भाषाओं को साहित्यिक, धार्मिक और दूसरे क्षेत्रों में कदम रखता हुआ पाते हैं. सिद्धों के चर्यापद, कबीर की साखियाँ, सूरदास के पद के अलावा रासो परंपरा में भी हम इन भाषाओं की ताकत को महसूस करते हैं. वैसे इसके पहले के काल में पालि की गाथाएँ और अपभ्रंश के कवित्त भी लोगों का मन मोहते नज़र आते हैं. अँग्रेज़ों के आगमन पर तो ये सभी भाषाएँ मानो कमर कस कर लोहा लेने को तैयार दिखती हैं.

जैसे यूरोप में पूँजीवाद ने सामंतवाद के परखच्चे उड़ा दिए वैसा भारत में नहीं हुआ. यहाँ पूँजीवाद को, कमज़ोर होने के कारण, सामंतवाद से समझौता करना पड़ा. इसीलिए यहाँ हमें सामंतवाद का विरोध और समर्थन एक साथ दिखाई देता है. इस संस्कृत-प्रेम का एक रूप विभिन्न भाषाओं की शब्दावलियों को संस्कृत के कृत्रिम शब्दों से भरना भी है. इसी कारण हमें आधुनिक भाषाओं में सांप्रदायिक, सामंती अवशेष दिखाई देते हैं जो लौट-लौट कर संस्कृत की कलिष्ट शब्दावली के रूप में इन भाषाओं के पाँव की बेड़ी बनते हैं. भाषाओं में ये अवशेष संस्कृत, फारसी या अंग्रेज़ी भाषाओं या इन भाषाओं की शब्दावली के प्रति प्रेम में झलकते हैं. हमारा शासक वर्ग जानता है कि आज संस्कृत को राजकाज की भाषा नहीं बनाया जा सकता. वैसे अगर यह संभव होता तो हमारा शासक वर्ग सबसे पहले यही करता. चूँकि यह संभव नहीं है इसलिए यह वर्ग इन भाषाओं में संस्कृत शब्दावली ठूँसने की कोशिश करता है ताकि इन भाषाओं को जटिल और अबूझ बनाकर ज्ञान और शिक्षा को अभिजात वर्ग तक सीमित रखा जा सके. जब एक अभिजात वर्ग (संस्कृत समर्थक) का दूसरे अभिजात वर्ग (फारसी समर्थक) से टकराव होता है तो अभिजात वर्ग की लड़ाई को हिंदी और उर्दू के रूप में जनता की लड़ाई में बदल दिया जाता है. इसके लिए अभिजात वर्ग बड़ी कुटिलता पूर्वक शतरंज बिछाता है. क्योंकि इससे आम लोगों का विकास और लोकतंत्र का फैलाव रुक जाता है. नतीजतन दोनों ही अभिजात वर्ग फायदे में रहते हैं.

मज़े की बात तो यह है कि इन दोनों ही अभिजात वर्गों की छाती पर मूँग दलने वाला शासक वर्ग यानी अंग्रेज़ी अभिजात वर्ग सबसे ज्यादा फायदे में रहता है. बिल्लियों की लड़ाई में सारी रोटी बंदर के पेट में जाती है. इसकी एक वजह इन अभिजात वर्गों द्वारा एक-दूसरे को परास्त करने के लिए अंग्रेजी भाषी अभिजात वर्ग की मदद लेना है. इस दिलचस्प बंदरबाँट में तीनों अभिजात वर्ग फायदे में रहते हैं, अपनी-अपनी तिकड़मों से ये सभी वर्ग लाभ उठाते हैं. घाटे में रहती है आम जनता. क्योंकि बंदरबाँट का यह घमासान उसी के गाढ़े पसीने की कमाई के लिए होता है.

मात्र संस्कृत को राष्ट्रीय सम्मान का पर्याय मानना, उसे ही भारत की महानता की भाषा मानना उस भारतीय मानसिकता से कोसों दूर है जिसने भारतीय संस्कृति की असली पहचान बनाई है. दरअसल हमें इस बात की भी पड़ताल करने की जरूरत है कि वेद के निंदक को नास्तिक क्यों कहा गया. उसे अनैतिक क्यों माना गया.

यहाँ यह बताना भी अप्रांसगिक नहीं होगा कि हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि संस्कृत भाषा या साहित्य में कुछ भी उपयोगी नहीं है. हमारा इतना ही मतलब है कि ‘संस्कृत’ का गुणगान करने वाली मानसिकता ‘वर्ण-व्यवस्था’ का प्रचार करने वाली अभिजात मानसिकता है. सत्ता के लिए भाषा की जटिलता अपनी सत्ता को सुदृढ़ करने का औजार है. फिर यह भाषा संस्कृत हो, फारसी हो, संस्कृत-निष्ठ हिंदी हो, अरबी-फारसी-निष्ठ उर्दू हो या अंग्रेज़ी हो. भाषा की जटिलता आम लोगों को ज्ञान से दूर करने और ज्ञान से दूर करके सत्ता से दूर रखने का औजार है. नहीं तो संस्कृत के नाम पर वेदों-पुराणों की हाँक लगाने वालों को बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन और धर्मकीर्ति, महाकवि अश्वघोष याद क्यों नहीं आते. इनकी तो छोड़िए, इन्हें तो कालिदास, भवभूति और बाणभट्ट भी याद नहीं आते. फिर आर्यभट, सुश्रुत, भास्कर, चरक जैसे वैज्ञानिकों को याद करने की कौन कहे. ज्ञान के नाम पर इन्हें सिर्फ कुटिल चाणक्य याद आते हैं.

इसका एक ही जवाब संभव है. और वह है वर्णाश्रम व्यवस्था. वर्णाश्रम व्यवस्था का मूल है ब्राह्मणों की सर्वोच्‍चता. इस पूरे प्रचारित संस्कृत साहित्य में धर्म का व्यवहारिक अर्थ ब्राह्मणों की सेवा करना ही है. जन्म से लेकर मरण तक सारे कर्मकांड ब्राह्मणों की रोजी-रोटी के जरिये हैं. ऋग्वेद का पुरुष सूक्त वर्ण-व्यवस्था के विचार को सबसे पहले प्रस्तुत करता है. बाद के लगभग सभी दार्शनिकों और वैज्ञानिकों ने वेदों द्वारा प्रतिपादित वर्ण व्यवस्था को स्वीकार लिया. अगर उनके विचारों से कहीं वेदों का विरोध हुआ भी तो उन्होंने उसकी उपेक्षा ही की. कारण इतना ही था कि कहीं उनका सामाजिक बहिष्कार न हो जाए. ब्राह्मण वर्चस्व को बनाए रखने का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम संस्कृत भाषा पर एकाधिकार था. शूद्र और अतिशूद्र के लिए प्रतिबंधित इस भाषा के जरिये ही ब्राह्मणों ने अपना राज निष्कंटक किया. हमारे देश में वैज्ञानिक सोच के न पनप पाने का एक महत्वपूर्ण कारण सामाजिक बहिष्कार का डर भी था.

इसीलिए जिन भी दार्शनिकों ने मानव के पक्ष में खड़े होने का जोखिम उठाया उनके पास इसके सिवा कोई चारा न था कि वे वेदों की अपौरुषेयता को, संस्कृत के देववाणी होने को और ब्राह्मणों के महामानव होने की कड़ी आलोचना करें. और यही हुआ भी. चार्वाक, बौद्ध, जैन, सिद्ध, नाथ, निर्गुण संत—भारतीय लोक-ज्ञान परंपरा के सभी विचारक वेदों और संस्कृत के खिलाफ खड़े हैं और लोक और ज्ञान के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं. और आधुनिक भारत में इसी परंपरा को जोतिबा फूले और डॉ. अंबेडकर ने आगे बढ़ाया है.

अंत में हम कह सकते हैं कि अगर हमें इस देश में लोकतंत्र, समता, स्वतंत्रता, विज्ञान दृष्टि और न्याय स्थापित करना है तो इस देश के क्रांतिकारी विचारकों—भगवान बुद्ध और महात्मा कबीर—की तरह हमारे पास भी कोई चारा नहीं है, सिवाय इसके कि हम वेदों और संस्कृत के वर्चस्व को चुनौती दें. आज सीधे संस्कृतीकरण का खतरा नहीं है. आज संस्कृत और इसके मानव-विरोधी मूल्य हिंदी आदि भाषाओं की तकनीकी शब्दावली के जरिये हम पर हमला कर रहे हैं. अफसोस की बात है कि जनवादी ताकतों की तरफ से इसका अपेक्षित मुखर विरोध नहीं हो रहा है. उल्टे वे खुद संस्कृत की जटिल पदावली का प्रयोग कर लोक भाषा हिंदी को दुरूह कर रहे हैं.

पादटिप्पणियाँ—
1. हजारी प्रसाद द्विवेदी, भाषा, साहित्य और देश, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण, 1998, पृ.9-13.
2. महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रतिनिधि संकलन, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, 1997, पृ.214.
3. किशोरीदास वाजपेयी, हिंदी शब्दानुशासन, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 2045 वि., पृ.1-9.
4. राजमल बोरा, समकालीन भारतीय साहित्य-69, जनवरी-फरवरी 1997, पृ.44.
5. ए एल बाशम, अद्भुत भारत, शिवलाल अग्रवाल एण्ड कम्पनी, आगरा, 1997, पृ.321.
6. सुनीति कुमार चटर्जी, भारतीय आर्य भाषा और हिंदी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.41.
7. कृष्ण मोहन श्रीमाली, धर्म, समाज और संस्कृति, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, 2005, पृ.176-177.
8. राजमल बोरा, समकालीन भारतीय साहित्य-69, जनवरी-फरवरी 1997, पृ.47.
9. डॉ. धर्मवीर, हिंदी की आत्मा, समता प्रकाशन, दिल्ली, 1984, पृ.76.
10. कृष्ण मोहन श्रीमाली, धर्म, समाज और संस्कृति, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, 2005, पृ.187-88

10 August, 2008

कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह के काव्य संग्रह ‘बोलो मोहन गाँजू’ का लोकार्पण

-अच्युतानंद मिश्र

गत 5 अगस्त को साहित्य अकादमी के सभागार में वरिष्ठ क्रांतिकारी कवि स्वर्गीय कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह के चौथे संग्रह ‘बोलो मोहन गाँजू’ का विमोचन कार्यक्रम हुआ. कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि-कथाकार-आलोचक विष्णुचंद्र शर्मा ने की. उन्होंने कहा कि कुमारेंद्र ने इस संग्रह में नव-उपनिवेशवाद के खतरे सामने रख दिए हैं. पूरी कविता को मैं एक बड़े नाटक के रूप में देखता हूँ. ये वैश्विक संघर्ष से जुड़ी कविताएँ हैं. कविता में जो चरित्र आए हैं वे अफ्रीका में, लैटिन अमरीका में मिल जाएँगे. ध्यान से अगर कुमारेंद्र के कविता कर्म को देखें तो मध्यवर्ग से लगातार संघर्ष उनमें दिखेगा.
आलोचक जवरीमल पारख ने कहा कि कुमारेंद्र की इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि कवि लोगों से बात कर रहा है. ये एक तरह की संवादपरक कविताएँ हैं. ये ऐसी कविताएँ हैं जहाँ शहरी मध्यवर्ग की गर्मागर्मी वाली बहस नहीं है बल्कि ये ऐसी कविताएँ हैं जहाँ कवि कुछ सिखाता है, खुद कुछ सीखता है. ये आदिवासियों के व्यापक अनुभव को कविता में तबदील करने वाली राजनीतिक कविता है. इसलिए इन कविताओं में आदिवासियों के जीवन के विस्तार और संकट को रेखांकित किया गया है.
आलोचक डॉ.गोपेश्वर सिंह ने पटना के काफी हाउस में कुमारेंद्र के साथ बिताए क्षणों को याद करते हुए कहा कि हिंदी में जिन कवियों से मैं अत्यंत गहरे रूप में जुड़ा हूँ कुमारेंद्र उनमें पहले नंबर पर आते हैं. वे बहुत मजबूत काव्य चिंतक भी थे. उन्होंने आलोचक आनंद प्रकाश के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि कुमारेंद्र के अप्रकाशित साहित्य को प्रकाश में ला कर वे एक महान कार्य कर रहे हैं. उल्लेखनीय है कि इस संग्रह का संपादन एवं संकलन आनंद प्रकाश ने किया है.
वरिष्ठ कवि असद जैदी ने कहा कि कुमारेंद्र के सजीले व्यक्तित्व की छाप मेरे मन पर हमेशा बनी रहेगी. उन्होंने कहा कि पुस्तक की भूमिका पुस्तक का अभिन्न अंग प्रतीत होती है, साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पुस्तक पढ़ते हुए खुशी और बेचैनी दोनों से भर गया. यह संग्रह समकालीन हिंदी कविता का एक दुर्लभ नगीना है.
कुमारेंद्र की कविताओं का पाठ कवियित्री अनामिका, पायल नागपाल एवं अशोक तिवारी ने किया. खचाखच भरे सभागार में कविता का जादू सर चढ़ कर बोल रहा था. कार्यक्रम का आयोजन साहित्यिक संस्था ‘पीपुल्स विज़न’ और ‘लोकमित्र’ प्रकाशन ने किया. कार्यक्रम का संचालन वेद प्रकाश ने किया और अंत में पीपुल्स विज़न के सचिव रामजी यादव ने धन्यवाद ज्ञापित किया.

13 February, 2008

विमोचन

एक दलित लेखक की पुस्तक का विमोचन था.
महान आलोचक विमोचन के लिए मौजूद थे. प्रकाशक महोदय ने उनका परिचय कराते हुए कहा--
'आज हमारे बीच सदी के सबसे बड़े आलोचक विद्यमान हैं, जिन्होंने हिंदी साहित्य को नई दिशा दी है. स्त्रियों और दलितों के योगदान का विशेष उल्लेख किया है. आज इनके बिना विश्वविद्यालयों में पत्ता तक नहीं हिलता.'
गदगद हुए आलोचक प्रवर ने कहना शुरू किया--'इन प्रकाशक महोदय का हिंदी साहित्य में विशेष योगदान है. इन्हें उभरती हुई प्रतिभाओं की सटीक पहचान है. इन्होंने नए लेखकों को मंच प्रदान किया है. उनकी रचनाओं को प्रकाश में लाए हैं. हिंदी साहित्य में इनका योगदान अविस्मरणीय है. यदि ये प्रकाशक महोदय न होते तो न जाने कितने क्रांतिकारी लेखक गुमनामी के अंधेरे में खो गए होते.'
भाषण के बाद उन्होंने बड़े सलीके से रैपर को खोला और पुस्तक को मुस्कराते हुए बड़ी अदा से कैमरे की ओर किया. चारों तरफ फोटो खिंचने लगे. मिठाइयाँ और नमकीन वितरित होने लगे. पत्रकार उनसे आगामी योजनाओं के बारे में सवाल पूछने लगे.
इसी बीच किसी ने कहा कि लेखक कहाँ है. कोने में सिमटा बैठा लेखक सकुचा गया कि आखिरकार किसी ने उसका ज़िक्र तो किया.
अचानक जैसे प्रकाशक को सुध आई--'हाँ, हाँ, भई तुम भी आगे आओ. ऐ..., ज़रा इनकी भी फोटो खींचना'

10 January, 2008

दलित पुनर्जागरण के सवाल

आज देश संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है जिसमें जहाँ अर्ध-सामंती/अर्ध-बुर्जुआ/अर्ध-उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था पूरी तरह उपनिवेशवादी अर्थ-व्यवस्था में बदलती जा रही है, जिससे पूँजीवादी और समाजवादी ताकतों के अंतर्विरोध और तीखे हुए हैं तो वहीं सामंती समाज-व्यवस्था बाज़ारू समाज-व्यवस्था में रूपांतरित हो रही है, साथ ही लोकतांत्रिक चेतना का विस्तार भी हो रहा है यानी एक तरफ हमारे सामाजिक संबंधों पर बाज़ार की वक्र दृष्टि पड़ रही है तो दूसरी ओर समाज में लोकतंत्र का विस्तार भी हो रहा है.
उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में हमारे देश में सामाजिक आंदोलनकारी मार्क्स, गांधी, लोहिया और अंबेडकर के चिंतन से प्रभावित रहे हैं. डॉ. अंबेडकर के चिंतन से प्रभावित लोग चाहे मीडिया में अपनी जगह बनाने में कामयाब न हुए हों परंतु सतह के नीचे बहती अंतर्धारा के रूप में हमेशा विद्यमान रहे हैं. आज अंबेडकरवादी साहित्य और चिंतन ने मुख्यधारा के मंचों पर अपनी जगह बना ली है.
क्या है यह अंबेडकरवादी विचारधारा? इसका दूसरी क्रांतिकारी विचारधाराओं के साथ क्या रिश्ता है? इस देश में लोकतंत्र की प्राचीन काल से बहती आ रही धारा के साथ इसका क्या रिश्ता है? आज प्रमुखता पा रही सांप्रदायिक विचारधारा के प्रति इसका क्या नज़रिया है? इस विचारधारा के अपने क्या अंतर्विरोध हैं? इन्हीं सब सवालों से जूझती है डॉ. तेज सिंह की पुस्तक ‘दलित समाज और संस्कृति’.
लेकिन तेज सिंह इन सवालों पर अकादमिक तरीके से विचार करने की बजाय एक आंदोलनकारी की तरह इनसे टकराते हैं. कार्ल मार्क्स की तरह वे भी मानते हैं कि ‘दर्शन का कार्य समाज की व्याख्या करना नहीं, इसे बदलना है.’
यह पुस्तक उनके विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों का संग्रह है इसलिए कई जगहों पर दुहराव भी दिखाई पड़ता है. लेखों का प्रकाशन वर्ष न दिया जाना और संदर्भ-सूची न होना इस पुस्तक को पढ़ते समय बार-बार खटकता है.
इस किताब के कई लेख मार्क्सवादियों और अंबेडकरवादियों के अंतर्विरोधों पर हैं. डॉ. तेज सिंह का महत्व इस बात में है कि एक, वे इस बहस में अंबेडकर के साथ खड़े हैं परंतु मार्क्स को अपने शत्रु के रूप में नहीं देखते. दो, शत्रु के रूप में हिंदू फासीवादियों की पहचान करते हैं जो उनकी वैचारिक प्रखरता और साहस को जाहिर करता है. तीन, जातिवाद को एक तरफ सामंतवाद से जोड़ते हैं तो दूसरी तरफ साम्राज्यवाद से. चार, साम्राज्यवादियों की नई शब्दावली पर मुग्ध नहीं होते और उसके पीछे छिपे उनके शोषणकारी मनसूबों की सही पहचान कर लेते हैं.
वे अपने लेख ‘अम्बेडकर वादी विचारधारा और समाज’ में विचारधारात्मक संघर्ष को कुंद करने में बाजारवाद की भूमिका की आलोचना करते हुए कहते हैं—‘बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद की संस्कृति और विचारधारा ने मनुष्य की वैचारिक-स्वतंत्रता और सोच को कुंद करना शुरू कर दिया है. सही अर्थों में यही उत्तर-आधुनिकता है, यही भूमंडलीकरण है जिसमें विचारधारा का अंत कर दिया गया है; तब उसमें मनुष्य का अंत भी निश्चित ही है। इस तरह भूमंडलीकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया अमरीकी साम्राज्यवाद की संस्कृति और विचारधारा के विस्तार की प्रक्रिया का ही हिस्सा है.’ (पृष्ठ 14)
भारतीय समाज के शत्रुओं की पहचान को रेखांकित करते हुए वे अगले लेख ‘अंबेडकरवाद, वामपंथ और दक्षिणपंथ’ में डॉ. अंबेडकर को उद्धृत करते हैं—‘मेरे खयाल से ऐसे दो शत्रु हैं जिनसे इस देश के मजदूरों को निपटना ही होगा. वे दो शत्रु हैं—ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद’. वे लगे हाथ ब्राह्मणवाद की अपनी समझ को भी स्पष्ट कर देते हैं—‘ब्राह्मणवाद से मेरा आशय एक समुदाय के रूप में ब्राह्मणों की शक्ति, उनके अधिकारों और हितों से नहीं है’ बल्कि ‘ब्राह्मणवाद से मेरा मतलब है—स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना का निषेध. उस अर्थ में यह सभी वर्गों में व्याप्त है और सिर्फ ब्राह्मणों तक ही सीमित नहीं है, हालाँकि यह बात अपनी जगह बिल्कुल सही है कि वे ब्राह्मण ही थे जो इस निषेधात्मक भावना के आदि प्रणेता और प्रवर्तक रहे. यह ब्राह्मणवाद जो सर्वत्र व्याप्त है और जो सभी वर्गों के विचारों और कार्यों को नियंत्रित-निर्देशित करता है, एक अकाट्य सच्चाई है.’ (पृ.25-26)
वे ठीक ही सांप्रदायिकता को जातिवाद से जोड़ते हैं—‘हमें मान लेना चाहिए कि जो जितना जातिवादी है वह उतना ही बड़ा सांप्रदायिकतावादी भी है. कम से कम भारत में सांप्रदायिकता का आधार जाति और धर्म है जिसके मेल को आधुनिक भाषा में हिंदुत्व कहा जाता है. दूसरे अर्थों में इसे हिंदू साम्राज्यवाद भी कहा जा सकता है.’ और दलित बुद्धिजीवियों की कसक उनके इन वाक्यों में प्रकट हो उठती है—‘इस हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ वामपंथियों ने कभी संघर्ष नहीं चलाया. उनके राजनीतिक संघर्ष में सामंतवाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद तो है लेकिन इन सबसे गठबंधन करके सत्ता-सिर्फ राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक-आर्थिक सत्ता भी, पर काबिज होने वाला ब्राह्मणवाद उनकी आँखों से हमेशा ही ओझल रहता है. जातिवादी समाज-व्यवस्था को सामंती-अर्द्ध-सामंती अवशेष बताकर ब्राह्मणवाद को हाशिए पर डाल देना हिंदू साम्राज्यवाद को ही मजबूत करना है...वामपंथी ताकतों ने बाहरी साम्राज्यवाद के खिलाफ तो संघर्ष चलाया लेकिन अंदर के साम्राज्यवाद यानी हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ कोई संघर्ष नहीं चलाया. यही वजह है कि अधिकांश वामपंथियों के अंदर अभी भी ब्राह्मणवाद घर बसाए हुए है.’ पृ.32-33)
जाति व्यवस्था ब्राह्मणवादी विकृत मानसिकता की देन है जिसे डा. अंबेडकर ने ठीक ही अप्राकृतिक विभाजन माना है. वे लिखते हैं—‘इसलिए डॉ. अंबेडकर ने वर्ण विभाजन को न तो वर्ग विभाजन माना और न श्रम विभाजन ही. जबकि देश के कई मार्क्सवादियों ने वर्ण विभाजन को स्वाभाविक विभाजन मानकर एक प्रगतिशील कदम माना है; ठीक उसी तरह जैसे श्रम विभाजन के आधार पर होने वाला वर्ग-विभाजन. डॉ. रामविलास शर्मा का यही तर्क रहा है. इस तरह देश के ऐसे मार्क्सवादियों ने वर्ण-व्यवस्था के तहत होने वाले श्रेणीबद्ध-विभाजन को ही वर्ग-विभाजन मान लिया है और प्रकारांतर से जातिप्रथा का ही समर्थन कर दिया है. सीधे-सीधे जातिप्रथा का समर्थन करने पर उन्हें प्रतिक्रियावादी घोषित किए जाने का डर था तो घुमा फिराकर वर्ण-विभाजन को वर्ग-विभाजन बता दिया. इसे इनका मार्क्सवादी चिंतन नहीं, ब्राह्मणवादी चिंतन कहा जाना चाहिए.’ (पृ.37)
डॉ. अंबेडकर के प्रति मार्क्सवादियों की दुविधा पर उन्होंने विस्तारपूर्वक विचार किया है. ‘अंबेडकरवाद और मार्क्सवाद का द्वंद्वात्मक संबंध’ शीर्षक लेख में उन्होंने मार्क्सवादियों के पक्ष को इन शब्दों में प्रस्तुत किया है—‘वामपंथियो का एक बहुत बड़ा तबका ... यह मानता रहा है कि भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में जातिप्रथा ने कोई अवरोध पैदा नहीं किया. अपनी इसी स्थापना के चलते वामपंथियों ने जातिप्रथा के प्रभाव को कमतर आँकते हुए उसके विघटनकारी तत्वों की ओर ध्यान नहीं दिया. वे यह भी नहीं मानते हैं कि जातिप्रथा ने ही सामाजिक-भेदभाव के विभिन्न औजारों को पैदा करके समाज को विभिन्न जातियों-उपजातियों में बाँटकर सामाजिक अलगाव की प्रक्रिया को और मजबूत आधार प्रदान किया है तथा वर्गहीन समाज के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा पैदा की है. इसके विपरीत यह मानते रहे हैं कि दलितों के पास अंबेडकर जैसे प्रख्यात नेता के नेतृत्व के बावजूद अछूतों के महान संघर्ष, छुआछूत के खात्मे के वांछित नतीजों तक पहुँचने में नाकामयाब रहे हैं. वे यह भी मानते हैं कि ब्राह्मणवाद विरोधी संघर्ष और धर्मपरिवर्तन के जरिए बौद्ध बन जाने जैसे ‘शार्टकट’ रास्तों से दलितों पर होने वाले अत्याचारों और जातिभेद आदि की समस्या का हल नहीं हो सका है. इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि डॉ.अंबेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण करके मार्क्सवाद पर सीधा प्रहार किया है और वर्ग संघर्ष से ध्यान हटाकर वामपंथी शक्तियों को कमज़ोर किया है.’ (प-.42-43) उन्हें लगता है कि ‘वामपंथियों की सबसे बड़ी समस्या डॉ. अंबेडकर द्वारा धर्म को स्वीकार कर लेने की रही है—वह भी बौद्ध धर्म को. उनकी दृष्टि में अगर डॉ.अंबेडकर हिंदू धर्म में बने रहकर जातिवाद के खिलाफ संघर्ष करते तो उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती. क्योंकि वे खुद हिंदू धर्म में रहते हुए वर्ग-संघर्ष पर लंबी चौड़ी बातें करते हैं तो दूसरी तरफ जातिभेद का विरोध करते हैं पर वर्ण व्यवस्था को मजबूत करने वाले ब्राह्मणवाद पर चुप्पी साधे रहते हैं.’ (पृ.43) तेज सिंह की यह बात बेबुनियाद तो नहीं लगती.
डॉ. अंबेडकर के पक्ष को रखते हुए वे ‘हिंदुत्व का दर्शन’ नामक पुस्तक से उन्हें उद्धृत करते हैं—‘संभवतः वर्तमान हिंदू मार्क्सवाद के घोर विरोधी हैं. इसके पीछे कारण यह है कि मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत से वे बहुत ही भयभीत हो जाते हैं. लेकिन वही लोग यह भूल जाते हैं कि भारत न केवल वर्ग-संघर्ष, वर्ग युद्ध की भूमि बन चुका है.’ डॉ.तेज सिंह बताते हैं कि अंबेडकर तो वर्ग-संघर्ष को नहीं भूले लेकिन वे (वामपंथी) खुद वर्ण व्यवस्था को मजबूत करने वाले ब्राह्मणवाद पर चुप्पी साधे रहते हैं.
क्या डॉ. अंबेडकर समाजवाद के विरोधी थे? क्या वे पूँजीवाद के समर्थक थे? नहीं, नहीं. वे समाजवाद के ही समर्थक थे. उनके शब्द-शब्द से जाहिर होता है कि वे राज्य नियंत्रित आर्थिक विकास चाहते थे. जबकि आज हमारे प्रधानमंत्री अर्थव्यवस्था में कम से कम दखल की तरफदारी कर रहे हैं. डॉ.अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में इन सवालों पर अपनी राय रखी है. जैसाकि तेज सिंह बताते हैं—‘एक अर्थ में डॉ. अंबेडकर ने सर्वहारा की तानाशाही का विरोध किया है पर समाजवादी व्यवस्था का नहीं. वे राज्य के नियंत्रण में नई समाज व्यवस्था के लिए ऐसी आर्थिक व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे जिसमें संपत्ति का समान वितरण हो, कृषि पर राज्य का स्वामित्व हो, सामूहिक खेती की व्यवस्था हो और बीमा का राष्ट्रीयकरण हो, इसके साथ-साथ वे तीव्र औद्योगीकरण की जरूरत को भी महसूस करते थे.’ (पृ.51)
महत्वपूर्ण बात यह है कि डॉ. तेज सिंह मतभेदों के बावजूद मार्क्सवाद को अंबेडकरवाद का दुश्मन नहीं मानते—‘अगर जातिविहीन-वर्गविहीन समाज का निर्माण करना है तो दलितों और कम्युनिस्टों—दोनों को ही इन समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए क्योंकि हिंदू फासीवाद आपके घर दस्तक दे रहा है.’ (पृ.52)
मार्क्सवाद को दुश्मन तो डॉ.अंबेडकर भी नहीं मानते थे. उनका गुस्सा तो तत्कालीन मार्क्सवादियों की जातिगत शोषण के बारे में साजिशी चुप्पी पर था. कितनी विडंबना की बात है कि मार्क्सवादी आज भी दलितों को अपने एजेंडे पर ही लाना चाहते हैं, उनके जातिगत शोषण पर अख़बार या टीवी चैनलों पर बयान जारी करने से ज्यादा कुछ नहीं करना चाहते. जब दलित जातिवाद का सवाल उठाते हैं तो मार्क्सवादी उन्हें वर्ग-संघर्ष और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत समझाने लगते हैं. लेकिन जाति, धर्म, लिंग और भाषा को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की कसौटी पर कसना उन्हें नहीं भाता. तेज सिंह ने अपनी पुस्तक में जाति, धर्म और लिंग पर तो बात की है, पर भाषा के पहलू को छोड़ दिया है.
आज कुछ दलित विचारक शब्दों की बाजीगरी कर हिंदू धर्म के साथ एक सुविधापूर्वक लाइन ले रहे हैं ताकि भाजपाई सरकारें उन्हें उपकृत कर सके और जो किसी संकोच के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, वे भारत के प्रगतिशील लेखकों और लोकतंत्र के पक्षधरों पर तीखा आक्रमण कर रहे हैं. जैसे भगवान बुद्ध, प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, जवाहर लाल नेहरू, पुरुषोत्तम अग्रवाल, मैनेजर पांडे, मैत्रेयी पुष्पा, रजनी तिलक, रमणिका गुप्ता, अनिता भारती, प्रभा खेतान, कम्युनिस्टों आदि पर. प्रगतिशील परंपरा का विरोध करने का मतलब भी एक तरह से सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतों का समर्थन करना ही होता है. क्योंकि वैसे भी इन्होंने कहीं भी इन शक्तियों के खिलाफ एक शब्द तक नहीं कहा, अलबत्ता कलावादी अशोक वाजपेयी जैसों की तारीफ जरूर की हैं.
तेज सिंह का प्रखर व्यक्तित्व इस कुहासे को छाँटता है और दलित लेखकों और समाज के सामने इन फासीवादी ताकतों के असली मनसूबों का पर्दाफाश करता है. वे आर.एस.एस. के जन विरोधी और दलित विरोधी रवैये को उजागर करते हैं. साथ ही उनके फासीवाद के चरित्र की ठीक पहचान करते हैं—‘भारत में फासीवाद का मूल चरित्र नस्लवादी नहीं जातिवादी है.’ ‘भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हिंदुत्व को एक जीवन पद्धति मानकर संवैधानिक मोहर लगाने के बावजूद हिंदुत्व का फासीवादी चरित्र खत्म नहीं हो जाता.’ (पृ.55) अपने ‘हिंदुत्व का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ शीर्षक लेख में उन्होंने भाजपा शासित राज्यों में हाल ही में घटी बहुत सी घटनाओं के उदाहरण से दिखाया है कि किस तरह भाजपा-आर.एस.एस. दलित विचारधारा और साहित्य का सारी लोक-लाज छोड़ विरोध करते हैं. इसीलिए डॉ. अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि किसी भी कीमत पर हिंदू राज (राष्ट्र) को रोकना ही होगा. अगर हिंदू राज एक सच्चाई में बदल जाता है तो यह इस देश के लिए सबसे बड़ी विपत्ति होगी. उन्होंने हिंदुओं की उदारतावादी अपील को भी खारिज कर दिया था. वे हिंदू कितनी ही उदारतावादी बातें कहें पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि हिंदूवाद हर लिहाज से लोकतंत्र विरोधी है और वह स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए एक ख़तरा है.’ (पृ.73)
संघ और विश्व हिंदू परिषद के जरिये कट्टरपंथी सवर्ण लोगों की रणनीति धार्मिक उन्माद फैला कर सांप्रदायिक हिंसा को एक ‘हथियार’ के रूप में इस्तेमाल कर दलित-आदिवासी-पिछड़ा समाज के लोगों की क्रांतिकारी चेतना को कुंद कर जाति और धर्म का वर्चस्व स्थापित करने के लिए उनका हिंदूकरण करने की रही है. तेजसिंह कहते हैं—‘दलितों के धर्म-परिवर्तन को रोकने के लिए ही हिंदू पुनरुत्थानवादी ताकतों ने सांप्रदायिकता का सहारा लिया है ताकि देश में सांप्रदायिक भावनाएँ उभारकर दलित-पिछड़ों की एकता तोड़कर उन्हें मुसलिम-सिख-ईसाइयों के खिलाफ एकजुट किया जा सके.’ (पृ.112)
और इसे रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए—‘हिंदू राष्ट्र के आतंकवादी चरित्र को हम दलित-पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक वर्गों की एकजुटता और एकता के आधार पर ही ध्वस्त कर सकते हैं. यह एकता और एकजुटता सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर ही नहीं सांस्कृतिक स्तर पर भी होनी चाहिए क्योंकि सांस्कृतिक एकता के बिना हिंदूवादियों की इस चुनौती को ध्वस्त नहीं किया जा सकता.’ (पृ.114)
दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्गों की एकता की जरूरत और उसके रास्ते में आने वाली रुकावटों तथा उन्हें दूर करने के तरीकों पर तेज सिंह अपने अगले तीन लेखों ‘इक्कीसवीं सदी में दलित समाज के सामने चुनौतियाँ’, ‘दलित समाज की वैचारिक-सांस्कृतिक एकता’ और ‘दलित-पिछड़ा वर्ग की सामाजिक-सांस्कृतिक एकता का सवाल’ में तफसील से विचार करते हैं. इनमें वे राजनीतिक से ज्यादा सांस्कृतिक एकता के महत्व को रेखांकित करते हैं. वे बार-बार आगाह करते हैं—‘राजनीतिक स्तर पर की गई एकता अस्थायी होगी और वह व्यक्तिगत स्वार्थों तथा वर्ग हितों के टकराते ही एक क्षण में टूटकर बिखर जाएगी. इसलिए दलित वर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक धरातल पर विकसित होने वाली एकता ही स्थायी होगी.’ (पृ.123)
वे जाति से लड़ने को ठीक ही सच्चे लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत मानते हैं—‘अगर जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना करनी है तो हमें जाति आधारित समाज-व्यवस्था का समर्थन करने वाले ब्राह्मणवाद और उसका पोषण करने वाले सामंतवाद को जड़ से खत्म करना होगा तथा जनवादी और लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों से वंचित करने वाली पूँजीवादी-व्यवस्था और उसकी विजय का गौरवगान करने वाली साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध लंबा संघर्ष करना होगा.’ (पृ.123)
वे अगले लेख ‘सामाजिक-अलगाव की संस्कृति के खिलाफ संघर्ष’ में ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष की लंबी परंपरा को चीन्हते हैं—‘यह भी सच्चाई है कि ब्राह्मणों के वर्चस्व और उसकी अमानवीय और असमानता की विचारधारा (ब्राह्मणवाद) के खिलाफ विद्रोह की लंबी परंपरा रही है. अंबेडकरवादी आंदोलन विद्रोह की इसी लंबी परंपरा में विकसित हुआ है.’ (पृ.134)
उनकी एक महत्वपूर्ण स्थापना है मध्यकालीन संत आंदोलन को ‘दलित पुनर्जागरण’ मानना—‘लंबे अंतराल के बाद दूसरा प्रयास बौद्धों और लोकायतों की परंपरा में ही सिद्धों-नाथों ने किया जिनमें अधिकांश निम्न समुदायों से आए थे. यह पूरी तरह से सांस्कृतिक आंदोलन था जिसकी जमीन पर मध्ययुग का दलित-पिछड़े वर्ग का सांस्कृतिक आंदोलन विकसित हुआ जिसे भ्रमवश कुछ ब्राह्मणवादी विचारधारा के समर्थक विद्वान भक्ति आंदोलन कहते हैं. यह वास्तव में दलित-पिछड़े वर्ग के कवियों का सांस्कृतिक आंदोलन था जिसमें सामाजिक-धार्मिक सुधार की भावना प्रबल थी और जो दलित पुनर्जागरण के साथ शुरू हुआ था. भारत में पहला दलित पुनर्जागरण मध्ययुग में दलित-पिछड़े वर्ग के कवियों की प्रेरणा से शुरू हुआ था-ठीक यूरोप के पुनर्जागरण की तरह.’ (पृ.135)
तेज सिंह जहाँ एक ओर अंबेडकरवाद-मार्क्सवाद के अंतर्संबंधों पर विस्तारपूर्वक अपनी बात रखते हैं वहीं वे दलितों के वैचारिक स्खलन को भी उतनी ही गंभीरता से लेते हैं. इस दृष्टि से उनका सबसे महत्वपूर्ण लेख है ‘दलित धर्म और दर्शन’. इस लेख में उन्होंने आज दलितों के स्वयंभू मसीहाओं के अंबेडकर विरोधी चिंतन को बेनकाब किया है. दलितवाद के नाम पर ये लोग जातिवादी और स्त्रीविरोधी विचार फैलाकर दलितों को दिग्भ्रमित कर रहे हैं. वे बताते हैं—‘डॉ. धर्मवीर ‘कबीर का धर्म’ कबीर के आलोचकों के आधार पर चलाना चाहते हैं और दलितों को भी सलाह देते हैं कि वे बौद्ध-धम्म के बजाय कबीर के धर्म को अपना धर्म स्वीकार करें. इस प्रकार वे कबीर को एक साहित्यकार के स्थान पर धर्म-उपदेशक बनाने पर तुले हुए हैं.’ और उनका विरोध करते हुए ठीक ही कहते हैं—‘धर्म को साहित्य और संस्कृति से मिला देने का मतलब होता है—फासीवाद और सांप्रदायिकता को जन्म देना.’ (पृ.158-189)
डॉ. तेज सिंह डॉ. अंबेडकर की तरह धर्म का संबंध नैतिकता से जोड़ते हैं—‘धर्म और ईश्वर में अभिन्न संबंध नहीं है परंतु धर्म और नैतिकता में अभिन्न संबंध है.’ डॉ.अंबेडकर धर्म की उत्पत्ति पर विचार करते हुए कहते हैं—‘आदिम समाज का धर्म, जीवन तथा उसकी सुरक्षा से संबंधित था और जीवन की इस प्रक्रिया से ही असभ्य समाज के धर्म की उत्पत्ति हुई है और इसमें ही उसका सार है. क्योंकि आदिम जीवन को जीवन और प्रवास की इतनी अधिक चिंता थी कि उसी को उसने अपने धर्म का आधार बनाया.’
अगले लेख ‘दलित सामंत का स्त्री विरोधी चिंतन’ में वे दलित लेखकों के स्त्रीविरोधी चिंतन का प्रखर विरोध तो करते ही हैं साथ ही मार्क्सवादी लेखकों द्वारा उनके स्त्री विरोध पर चुप्पी साधने की भी तीखी आलोचना करते हैं. ‘इस बात पर मतभेद हो सकता है कि प्रेमचंद सामंत के मुंशी थे या नहीं, लेकिन यह निश्चित है कि धर्मवीर ब्राह्मणवाद के पक्के सामंत बन गए हैं. इसलिए धर्मवीर को ब्राह्मणवाद का सामंत कहना ज्यादा ठीक लग रहा है.’ (पृ.196)
उनकी दूसरी महत्वपूर्ण स्थापना, जिसे वे सन् 2004 से बार-बार विभिन्न मंचों पर दोहरा रहे हैं, कि हमें इस साहित्य को ‘दलित साहित्य’ के स्थान पर ‘अंबेडकरवादी साहित्य’ कहना चाहिए.
इस किताब के अंतिम लेख ‘लोकतंत्र और दलित उत्पीड़न की संस्कृति’ में डॉ. तेज सिंह कहते हैं—‘भारत का इतिहास ब्राह्मणवाद और बौद्ध-धम्म के अनुयायियों के बीच परस्पर संघर्ष का इतिहास रहा है.’ इसी तरह यह किताब भी अंबेडकरवादी-लोकवादी शक्तियों और ब्राह्मणवादी-पूँजीवादी शक्तियों के बीच संघर्ष का दस्तावेज है.
कितना सटीक है इस पुस्तक का अंतिम वाक्य—‘सामाजिक लोकतंत्र के रास्ते ही हम समाजवाद के संकल्प को पूरा कर सकते हैं जिसमें दलित-पिछड़े वर्ग को हिंदुत्व की अपसंस्कृति से पूरी तरह मुक्ति मिल सकेगी.’ (पृष्ठ 216)

पुस्तक का नाम : दलित समाज और संस्कृति
लेखक : तेज सिंह
प्रकाशक : आधार प्रकाशन प्रा. लि., पंचकूला, हरियाणा
प्रथम संस्करण : 2007
मूल्य : 250/-