29 January, 2010

अंबेडकरवादी कहानी की भूमिका

‘संभवतः वर्तमान हिंदू मार्क्सवाद के घोर विरोधी हैं. इसके पीछे कारण यह है कि मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत से वे बहुत ही भयभीत हो जाते हैं. लेकिन वही लोग यह भूल जाते हैं कि भारत न केवल वर्ग-संघर्ष, बल्कि वर्ग युद्ध की भूमि भी बन चुका है.’
—डॉ. अंबेडकर, ‘हिंदुत्व का दर्शन’ से

पुराने ज़माने से ही भारत के लोगों ने यहाँ के शासक वर्ग का विरोध किया है, शासक वर्ग की विचारधारा का विरोध किया है. शासक वर्ग की विचारधारा का स्रोत वैदिक साहित्य है. वैदिक साहित्य को तीन भागों में बाँटा जाता है—संहिता, ब्राह्मण और उपनिषद. संहिताएँ चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद. वैदिक साहित्य का कर्मकांडीय पक्ष ब्राह्मणग्रंथ हैं. ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य हैं—ऐतरेय, शांखायन, शतपथ, तवल्कार और गो-पथ. वैदिक साहित्य का विचारधारा या चिंतन पक्ष उपनिषदों में आता है. उपनिषदों में मुख्य हैं—ऐतरेय, छांदोग्य, केन, कठ, ईश, प्रश्न और मांडूक्य. इन ब्राह्मणग्रंथों ने भारतीय समाज में जो कर्मकांड का जाल फैलाया उसने असमानता और अशिक्षा को बढ़ावा दिया, ब्राह्मण वर्ग को विशेषाधिकारों का मालिक बनाया. और उपनिषदों ने इन ब्राह्मणग्रंथों द्वारा ब्राह्मणों को दिए विशेषाधिकारों पर छद्म मानवता का मुलम्मा चढ़ाया. छद्म मानवता इसलिए कि इसमें मानवतावादी शब्दावली में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का ही डंका बजाया गया है.

यही ब्राह्मणवाद यहाँ के शासक वर्ग की विचारधारा रही है. यह विचारधारा असमानता और ब्राह्मण वर्ग के विशेषाधिकारों की समर्थक रही है. यहाँ के शासक वर्ग की अपनी भाषा (संस्कृत) तक रही है. जो यहाँ के संसाधनों के शोषण का जरिया रही है. यहाँ के शासक वर्ग की विचारधारा ब्राह्मणवाद यानी ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता का गुणगान, उसकी समाजव्यवस्था यानी वर्णाश्रम व्यवस्था और जातिवाद, उसकी शोषण और लूट की तिकड़में यानी यज्ञ और उसकी भाषा यानी संस्कृत—यही सब मिलकर बनाते हैं भारतीय शासकवर्ग के लूटतंत्र का ढाँचा.

और इन्हीं चारों चीज़ों को सबसे पहले और सबसे ताकतवर ढंग से चुनौती दी थी—भगवान बुद्ध ने. भगवान बुद्ध ने लूट की तिकड़म -यज्ञों- का सबसे जबर्दस्त विरोध किया, ब्राह्मण भाषा ‘संस्कृत’ के स्थान पर लोकभाषा पालि को अपनाया. वैदिक विचारधारा की छद्म मानवता के शब्दजाल को काट दिया और समानता का दीपक जलाया. समाज में विज्ञान के विकास को प्रोत्साहन दिया. उनके संघों में चिकित्साशास्त्र और दूसरे ज्ञान-विज्ञानों को आश्रय मिलता था.

पूरी दुनिया का स्वतंत्र चिंतन का सबसे पहला महान घोषणा पत्र (मैग्ना कार्टा) सुमत्ति सुत्त है. इसमें भगवान बुद्ध कहते हैं—हे कालामो! आओ, तुम किसी बात को केवल इसलिए स्वीकार मत करो कि यह अनुश्रुत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह बात परंपरागत ... है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह हमारे धर्मग्रंथ के अनुकूल है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह तर्कसम्मत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह अनुमान-सम्मत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि इसके कारणों की सावधानीपूर्वक परीक्षा कर ली गई है, केवल इसलिए स्वीकार मत करो कि कहने वाले का व्यक्तित्व भव्य है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य है. हे कालामो! जब तुम स्वानुभव से अपने आप ही यह जानो कि ये बातें अकुशल हैं, ये बातें सदोष हैं, ये बातें विज्ञ पुरुषों द्वारा निंदित हैं, इन बातों पर चलने से अहित होता है, दुःख होता है – तब हे कालामो! तुम उन बातों को छोड़ दो.

भगवान बुद्ध के साथ-साथ चार्वाकों, जैनियों, सिद्धों, नाथों आदि ने भी ब्राह्मणवादी विचारधारा के विभिन्न पक्षों का विरोध किया. जनसाधारण के पक्ष में लोकतांत्रिक चेतना के विस्तार और प्रसार में इन समुदायों की अहम भूमिका रही है. इसके बाद एक प्रबल जनपक्षधर आंदोलन का दौर चला जिसकी शुरुआत रैदास और कबीर से हुई. इस निर्गुण भक्तिधारा ने मध्यकाल में कारीगर जातियों के उत्थान और समृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ब्राह्मणवादी और जातिवादी चेतना पर इनके हमले बेहद तीखे थे.

इसके बाद अंग्रेजों का शासन आया. अंग्रेजों को सेना के लिए सिपाही चाहिए थे. उन्होंने अछूतों को सेना में भरती किया जिससे दलितों और पिछड़े वर्गों में शिक्षा का प्रसार होना शुरू हुआ. इसी समय में एक और महापुरुष हुए ‘महात्मा जोतिबा फुले’, जिन्होंने शूद्रों और अछूतों में शिक्षा के प्रचार और प्रसार को ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया. उन्होंने ब्राह्मणवादी शोषण को बेनकाब करने के लिए कई नाटक लिखे, लेख और पुस्तकें लिखीं.

इस सारे प्रयासों को समेटते हुए, ज्ञान, समता, मानव अधिकार और स्वतंत्रता के सभी पक्षों का पूर्ण विकास करते हुए एक महामानव हमारे बीच आए—बाबा साहेब डॉ. भीम राव अंबेडकर. वे बहुमुखी प्रतिभाशाली, उच्च कोटि के विद्वान, महान स्वतंत्रता सेनानी और दलित वर्गों के मुक्तिदाता थे. हजारों साल के ज्ञान को निचोड़कर उन्होंने मानव समता का रास्ता सामने रखा. समाज, धर्म, अर्थ, राजनीति, मानवता, स्वतंत्रता, समानता सभी पक्षों पर उन्होंने महान ग्रंथ रचे. और इस देश के बहुसंख्यक पिछड़े, दलित वर्गों के लोगों, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को मुक्ति का रास्ता दिखाया.

उनके भाषणों, लेखों और पुस्तकों से सारे देश के दलित वर्गों में उत्साह का संचार हो गया. अपनी बात को लोगों के बीच ले जाने के लिए उन्होंने समाचारपत्र प्रकाशित किए. सबसे पहला समाचार पत्र ‘मूकनायक’ 1920 में निकला. यहीं से दलित चेतना का आरंभ माना जा सकता है. उनके नेतृत्त्व में किए गए लाखों लोगों के संघर्षों और कुर्बानियों से दलित वर्गों के बीच शिक्षा का प्रसार हुआ. और दलित वर्गों के शिक्षित लोगों ने अपनी दशा सुधारने के लिए कलम का सहारा लिया. जिससे अंबेडकरवादी साहित्य की शुरुआत हुई.

इस आंदोलन ने विश्व स्तर पर चल रहे काले साहित्य से भी प्रेरणा प्राप्त की. ब्लेक पैंथर और ब्लेक लिटरेचर की तर्ज पर हमारे यहाँ दलित पैंथर और दलित साहित्य आए. दलित साहित्य यानी दलित वर्गों के लोगों द्वारा रचा गया साहित्य. इसका प्रेरणास्रोत डॉ. अंबेडकर का स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का दर्शन ही था. इस आंदोलन की दलितों में बढ़ती पैठ से घबरा कर ब्राह्मणवादी, पूँजीवादी और साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपनी कुटिल चालों से इस साहित्यिक आंदोलन में जातिवादी तत्वों को बढ़ावा दिया. नतीजतन ‘जय भंगी, जय चमार’ जैसी किताबें छपने लगीं. बाबासाहेब का स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का सपना कहीं पीछे छूटता लगने लगा.

इस दशा पर पूरे भारत के लोगों के बीच चिंतन हुआ कि इस स्थिति से कैसे निबटा जाए. प्रतिबद्ध विचारकों ने बाबासाहेब के साहित्य में शरण ली और वहीं से इसका जवाब सूझा कि हमारे साहित्य का केवल दलित वर्ग के द्वारा लिखा होना ही काफी नहीं है, इस साहित्य को भगवान बुद्ध, कबीर, जोतिबा फुले और बाबा साहेब आदि के दिखाए मार्ग पर भी चलना होगा. साथ ही दलित वर्गों के बाहर स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों, प्रगतिशीलों और धर्मनिरपेक्षों आदि में जो लोग समानता के समर्थक और जातिवाद के विरोधी हैं, उन्हें भी अपनी लड़ाई में शामिल करना होगा.

चूँकि आज के युग में पूरे भारत और समूचे विश्व की प्रगतिशील चिंतनधारा डॉ. अंबेडकर में पूँजीभूत होती है, और सभी विषयों पर प्रस्थान बिंदु उपलब्ध कराती है. इसलिए इसे नाम दिया—‘अंबेडकरवादी साहित्य’. ‘अपेक्षा’ ने 2004 में अपने संपादकीय का शीर्षक दिया—अंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा. इस संपादकीय में दलित चेतना के जाति-चेतना में बदल जाने और जाति-चेतना के राजनीतिकरण के खतरे का मुकाबला करने के लिए डॉ. अंबेडकर की सम्यक दृष्टि को इस प्रकार प्रस्तुत किया—‘अंबेडकरवाद जाति की श्रेष्ठता, शुद्धता और पवित्रता के जातिशास्त्र का विनाश करके समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे जनवादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर समाजशास्त्र का नया सिद्धांत प्रतिपादित करता है जिसे अंबेडकरवादी समाजशास्त्र कहा जाता है. इसलिए अंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा का आधार अंबेडकरवाद है, अंबेडकरवादी चिंतन है, अंबेडकरवादी समाज-दर्शन है और अंततः अंबेडकरवाद की सम्यक दृष्टि है.’

अपेक्षा के साथियों ने अपनी पत्रिका को अंबेडकरवादी साहित्य का मुखपत्र घोषित किया. तब से यह निरंतर अंबेडकरवादी साहित्य की मशाल ले कर चल रही है. धीरे-धीरे यह शब्द राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति हासिल करता जा रहा है. इसी कड़ी में 2007 में अंबेडकरवादी विचारधारा के लेखकों की कहानियों का एक संकलन निकला, जिसमें अंबेडकरवादी विचारधारा में पगे रचनाकारों और रचनाओं को शामिल किया गया.

अंबेडकरवादी साहित्य की सबसे मूलभूत विशेषता ब्राह्मणवादी सोच को बेनकाब करना है. ब्राह्मणवादी सोच यानी किसी को जन्म के आधार पर विशेषाधिकारों से संपन्न कर देना, उसे देवता का दर्जा दे देना, चाहे वह कितना ही बेकार, अज्ञानी, कुटिल ही क्यों न हो. यह सोच केवल ग्रामीण या अनपढ़ लोगों में ही नहीं है, बल्कि स्कूलों के प्रधानाचार्यों तक में है. इसी चीज को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है विपिन बिहारी ने अपनी कहानी ‘आपकी जात छोटी है’ में. इस कहानी में एक अमीर स्कूल के छात्रावास में रह रहे लड़कों की जातिवादी मानसिकता तो उजागर होती ही है, जो नितांत का ऐसे प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ना बर्दाश्त नहीं कर पाते, उन्हें तो एक शैड्यूल्ड कास्ट दीन-हीन मैला कुचैला ही भाता है, वही उनके अहं को तुष्टि देता है. यदि कोई सुखी घर का लड़का, जो पढ़ाई और खेलों में उनके वर्चस्व को चुनौती भी दे, वह उनके बर्दाश्त के बाहर होता है. पर इससे भी दुखद आश्चर्य तो तब होता है, जब उनका प्रधानाचार्य सही का पक्ष लेने के बजाय नितांत को ही समझाता है कि तुम्हें ऐसे स्कूल में नहीं पढ़ना चाहिए. और सवर्ण लोगों से हार जाना चाहिए ताकि वे तुमसे नाराज न हो जाएँ. लेकिन इस कहानी की असल चीज़ है ललित का अपने बेटे को कहना कि “डरना नहीं, बेटा, जितना डरोगे, उतना ही डराएँगे तुम्हें.”

सत्ता का नशा आदमी को इतना मगरूर कर देता है कि वह अपने से कमज़ोर के साथ जानवर से भी बदतर बर्ताव करने लगता है, उसकी मानवता मर जाती है. ब्राह्मणवादी सोच ने सत्ता के नशे में लाखों करोड़ों लोगों को अनपढ़ और रोटी-रोटी का मोहताज रखा. इसे ईश्वर की मर्जी बताया और मनमानी लूट की. आज भी गरीबों और मजलूमों को कीड़े-मकोड़े मानने की सोच सत्ताधीशों में जब तब दिखाई पड़ जाती है. ‘बाढ़ में वोट’ इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इस कहानी में रतन कुमार सांभरिया वर्णवादी भेदभाव के प्रति विद्रोह की अंबेडकरवादी चेतना का विस्तार कर उसमें सत्ताधारी वर्ग की अहमन्यता और लोगों को कीड़े-मकौड़े मानने वाली सोच के प्रति विद्रोह के आयाम को जोड़ते हैं. इस कहानी में वे पीड़ित वर्ग की जाति बता कर उसे सतही दलित कहानी बनाने के मोह में नहीं पड़ते, बल्कि वे पाठक के मन पर यह छाप छोड़ने में सफल होते हैं कि सभी उत्पीड़ित दलित हैं. सबकी पीड़ा उतनी ही खरी है फिर चाहे उनका धर्म, लिंग या जाति कुछ भी हो. इसलिए सबको मिलकर ‘आकाओं’ और ‘प्रजाओं’ की इस व्यवस्था को बदलने की ज़रूरत है. दलित की परिभाषा में सभी उत्पीड़ितों को शामिल करना अंबेडकरवादी विचारधारा का सही दिशा में विकास करना है, उसे संकीर्णता से मुक्त करना है.

डॉ. अंबेडकर की विचारधारा से प्रेरित हो दलित वर्गों में आत्म सम्मान हासिल करने की आकांक्षाओं पैदा हुई है लेकिन अपनी गरीबी के कारण उन्हें बार-बार समझौते करने पड़ते हैं. पुन्नी सिंह आकांक्षाओं और मजबूरियों के अंतर्द्वंद्व को अपनी कहानी ‘बच्चे जो स्कूल जाते हैं’ अभिव्यक्त करते हैं. इस कहानी में बाप अपनी माली हालत और ऐबों के चलते अपने बेटे को सुअर काटने के पुश्तैनी काम में लगाना चाहता है, उसकी लानत-मलामत भी करता है, उसे सुअर काटने में दक्ष होते देख असुरक्षित भी महसूस करता है, लेकिन आखिर में आत्म सम्मान हासिल करने का आकांक्षा की ही विजय होती है—‘देख, एक बात तू मेरी मान लेना, तू स्कूल मत छोड़ना.’ अंततः बच्चे को पढ़ाने का सपना जीतता है. कहानी बहुत ही मार्मिक बन पड़ी है.

वरिष्ठ अंबेडकरवादी लेखिका सुशीला टाकभौरे अपनी कहानियों में जाति के उत्पीड़न के साथ पुरुषवादी मानसिकता के कारण होने वाले उत्पीड़न का आयाम भी जोड़ती है. इस संकलन की उनकी कहानी ‘रामकली’ एक ओर घुमंतू जाति की स्त्रियों के शारीरिक शोषण की मानसिकता को उजागर करती है वहीं ‘कंजर’ समुदाय में व्याप्त स्वाभिमान को भी रेखांकित करती है. ये स्वाभिमान ही असल चीज़ है. यही एक दिन इस दुनिया को बदलेगा. अछूत प्रथा इसी स्वाभिमान को तोड़ने के लिए बनाई गई थी. कितने सुखद आश्चर्य की बात है कि शासक वर्गों के लाख प्रयासों के बावजूद ये स्वाभिमान है कि कम ही नहीं होता, रह रह कर सामने आ जाता है.

अंबेडकरवादी चिंतन का विरोध ब्राह्मणवादी चिंतन से है, ब्राह्मण जाति के लोगों से नहीं. शिक्षा और राजनीतिक चेतना ने कम ही लोगों में सही, पर सवर्ण वर्ग के लोगों में भी मानवतावादी चेतना पैदा की है. जब तक सवर्ण और अवर्ण लोगों में मिलकर एक समतावादी जातिहीन समाज बनाने की चेतना पैदा नहीं होगी, तब तक ऐसा समाज बनना मुश्किल ही है. ब्राह्मण वर्गों के प्रति आक्रोश अक्सर ब्राह्मण जाति के प्रति आक्रोश में बदल जाता है. तब ऐसे वाक्य निकलते हैं—‘कबीर का गुरु एक भुनगा या कुत्ता हो सकता है, परंतु एक ब्राह्मण कभी नहीं हो सकता.’ यहाँ सवाल यह नहीं है कि ऐसा हो सकता है या नहीं, यहाँ सवाल है कि जब हम ब्राह्मण जाति के लोगों से नफरत करते हैं, और उनकी अच्छाइयों को भी देखने को तैयार नहीं होते तो क्या एक तरह से हम जातिवाद यानी ब्राह्मणवाद को ही मजबूत नहीं कर रहे होते. अंबेडकरवादी चिंतन सम्यक दृष्टि में विश्वास करता है, जातिवादी दृष्टि में नहीं, इसीलिए वरिष्ठ रचनाकार बुद्ध शरण हंस की कहानी ‘आकाश मेरे पास’ में सब्जी वाली चंपा की, जो सफाईकर्मी समुदाय से है, सच्ची लगन, मेहनत और ईमानदारी देख कर डॉ. शंकर उपाध्याय मेडिकल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी में उसके बेटे का मार्गदर्शन करते हैं जिसके कारण वह सफल हो जाता है. जहाँ यह कहानी एक माँ के सपने के हकीकत में बदलने की कहानी है वहीं यह एक ब्राह्मण के मानवीय पहलू को भी उजागर करती है. और यह मानव के बेहतर होते जाने के प्रति भरोसा भी जगाती है.

जब से नौकरियों में एससी एसटी का आरक्षण शुरू हुआ है, लगभग तभी से नकली एससी प्रमाणपत्र बनवा कर नौकरियाँ हासिल करने वाले धूर्त लोग भी रहे हैं. जब कभी कभार इनके बारे में शिकायत मिलती है तो सरकारी तंत्र का रवैया मामला टरकाने और टालने का रहता है. इनकी इंक्वारियाँ 20-25 साल तक चलती रहती हैं. तब तक नकली प्रमाणपत्र के आधार पर नौकरी हासिल करने वाला आदमी रिटायर हो लेता है. इतनी देर से आने वाले फैसले इन्हें बेमानी बना देते हैं. इसी समस्या पर केंद्रित है श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कहानी ‘होनहार बच्चे’. इस कहानी में नकली प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए सवर्ण कहीं किसी गरीब लाचार एससी को अपना बाप बना लेते हैं तो कहीं किसी मजबूर एससी को पति बना लेते हैं. ऊपर से इन वर्गों का दुस्साहस देखिए कि किस तरह छद्म विनम्रता में अपने स्वार्थ और इरादों को छुपाए रहते हैं.

शहरीकरण के बावजूद जाति-विद्वेष लोगों में समाया है. कई सवर्ण तो अपनी स्वच्छता के नखरों के पीछे अपनी छुआछूत की भावना को छिपाते हैं. वे खुद कष्ट उठाते हैं लेकिन दलित व्यक्ति का साथ गवारा नहीं कर पाते. इसी को बड़े ही सशक्त कथानक में बुना है रूप नारायण सोनकर ने अपनी कहानी ‘रैंडमाइज़ेशन’ में. यह कहानी चुनावों के समय चुनाव की ड्यूटी देते अधिकारियों और उनके मातहतों की है. जब वे चुनाव ड्यूटी के पहले वाली रात खाना खा रहे होते हैं, तो जैसे ही उनमें से एक ब्राह्मण अधिकारी को यह मालूम पड़ता है कि प्रेज़ाइडिंग अधिकारी मेहतर जाति का है तो वह एक ही मेज पर बैठकर खाना खाने से मना कर देता है, रात को घोर बारिश होने पर भी अपने प्रेजाइडिंग अधिकारी के साथ एक ही कमरे में सोने से इंकार कर देता है, सारी रात कष्टपूर्वक बरामदे में ही भीगते हुए गुजार देता है. लेखक ने ठीक ही नोट किया है कि ‘कट्टर धार्मिक’ प्रवृत्ति के कुछ अधिकारी सार्वजनिक जीवन में भी छुआछूत बरतते हैं.

जातिवाद को आर्थिक और सामाजिक आधार सामंतवाद ने उपलब्ध कराया है. भारतीय आधुनिकता की एक समस्या का एक कारण सामंतवाद का खात्मा न हो पाना है. इसके परिणामस्वरूप कभी दूसरी जाति में शादी करना, कभी दूसरी जाति के व्यक्ति से प्यार करना, कभी अपने ही गोत्र में शादी करना जैसी मामूली बातें हत्या और सामूहिक बलात्कार का कारण बन जाती हैं. ऐसी ही एक घटना को अपनी सशक्त लेखनी से प्रस्तुत किया है मुकेश मानस ने अपनी कहानी ‘अभिशप्त प्रेम’ में. अंतर्जाति विवाह किए राघौ भैया के बच्चा भी हो जाता है. उन्हें धोखे से गाँव में बुलाया जाता है और उनकी पत्नी और बच्चे की नृशंस हत्या कर दी जाती है. दुखद यह है कि यह हत्या करने वाले कोई अपराधी प्रवृत्ति के इक्का दुक्का लोग नहीं होते, बल्कि आम लोग होते हैं, जिनके भीतर अपने धर्म, अपनी जाति, अपने रिवाजों का इतना मोह और भय बैठा है कि वे इन हत्याओं और बलात्कारों के मूक दर्शक ही नहीं होते बल्कि जंगलियों की तरह उसका उत्सव भी मना रहे होते हैं. सचमुच जुगुप्सा पैदा होती है कि जिस धर्म और सभ्यता ने इतने अमानवीय संस्कार दिए हैं क्या उसे सचमुच धर्म या सभ्यता कहा जा सकता है. कब इन लोगों में इतना साहस पैदा होगा कि वे इस अमानवीय धर्म और सभ्यता को छोड़ सम्यक दृष्टि अपनाएँगे.

बाबू राव बागुल की एक कहानी है ‘जब मैंने अपनी जाति छिपाई’. दलितों को जब शहर में नौकरियाँ मिलीं, लेकिन नौकरी के हिसाब से सही इलाकों में रहने को घर नहीं मिले तो जाति-अपमान से बचने के लिए उन्होंने अपनी जाति छिपाईं. उन्होंने अपने नामों के आगे अरोड़ा, आहूजा, शुक्ला, श्रीवास्तव जैसे जातिसूचक शब्द भी जोड़ लिए ताकि वे अपनी सही पहचान को छिपाकर दिन प्रतिदिन के अपमान से बच सकें. युवा कहानीकार अजय नावरिया ने अपनी ‘मुखौटे’ कहानी की विषयवस्तु इसी को बनाया है. नायिका की एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी लगती है. जब स्कूल की अन्य अध्यापिकाएँ उससे कुरेद कुरेद कर उसकी जाति के बारे में पूछताछ करती हैं तो वह हताश हो जाती है. अगले दिन जब वह नौकरी का इस्तीफा लेकर प्रिसिंपल से मिलती है तो उसे पता चलता है कि उसके साथ ही अधिकांश अध्यापिकाएँ शुक्ला, सैनी, शर्मा जैसे सरनेम होने के बावजूद असल में दलित ही हैं. तो वह चकित रह जाती है. अजय नावरिया की इस कहानी का अंतिम वाक्य है—‘उसने बढ़ कर हाथ थाम लिया था. एक चिड़िया, रोशनदान पर बैठी, रोशनी में नहा रही थी.’ क्या सवर्णों के जातिसूचक शब्द लगा कर ही दलितों की मुक्ति का रास्ता खुलेगा. डर और खौफ के कारण जाति छुपाना तो क्षम्य हो सकता है, परंतु अपनी जाति छुपाने को मुक्ति का दर्शन बना देना, यह चाहे और जो कुछ हो, अंबेडकरवाद तो नहीं हो सकता.

इसके बरक्स अनिता भारती की ‘एक थी कोटे वाली’ की नायिका ‘गीता’ बाबासाहेब के चिंतन की छत्रछाया में पली-बढ़ी है, इसलिए उसे न अपने बारे में कोई ग़लतफहमी है, न स्कूल की सवर्ण अध्यापिकाओं से कोई अपेक्षा है. जब मिसेज सागर को उसने बताया कि वह अंबेडकरवादी है तो अन्य दलित अध्यापिकाओं में खुशी की लहर दौड़ गई. गीता ने अध्यापन का काम इसलिए चुना था कि कम से कम इस पेशे में जातिवाद नहीं होगा, पर अन्य शिक्षिकाओं में जातिवाद देख कर उसने उन्हें ललकारा, उसके ललकारते ही अन्य दलित शिक्षिकाएँ भी अपना आक्रोश व्यक्त करने लगीं. और उनकी संगठित शक्ति से बिना कोटेवालियाँ हतप्रभ हो गईं. यही है असली अंबेडकरवाद—संगठित शक्ति और मुकाबला करने का साहस.

‘साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होता है.’ ऐसी किताबें पढ़कर और उनकी विश्वविद्यालय के अध्यापकों द्वारा की गई व्याख्याएँ, बहसें पढ़कर सुनकर ही हमारी पीढ़ी ने लोकतंत्र और समानता के संस्कार ग्रहण किए. हमें अपने अध्यापकों पर गर्व होता था. परंतु प्रगतिशील खेमें में भी लड़ाई का मुख्य कारण कबीर या तुलसी की काव्यचेतना न हो कर, ब्राह्मण या क्षत्रिय होना है, जब यह जाना तो ऐसा लगा जैसे, हरिशंकर परसाई के शब्दों में, मुझे किसी एंबुलेंस ने कुचल दिया हो. जातिवादी उत्पीड़न के ऐसे महीन अहसास को अपनी सशक्त कलम से बुना है रजनी दिसोदिया ने ‘एक ग़ैर-साहित्यिक डायरी’ को. बड़े ही शालीन मज़ाकों के सहारे जब ब्राह्मण और क्षत्रिय अपनी प्रशंसा करते हैं तो दलित छात्रों या शिक्षकों पर क्या गुज़रती है, इसका बड़ा ही मार्मिक चित्रण है इस कहानी में. लेखिका को कबीर के विद्वान के ब्राह्मणवादी फिकरे ठीक ही बहुत तकलीफ पहुँचाते हैं. इसमें से निकलने का रास्ता उसके पति के इन शब्दों में व्यक्त होता है—‘उन्हें मानने दो जो वे मानते हैं. बस अपनी मेहनत व संघर्ष की क्षमता पर विश्वास रखो’.

शासक वर्ग की विचारधारा सबसे अधिक मुखर रूप में शंकराचार्य के वेदांत में व्यक्त होती है. शंकराचार्य ने एक सूत्र दिया कि व्यवहारिक सत्य और परमार्थिक सत्य अलग-अलग होते हैं, यानी आप परमार्थ में सभी जीवों में एक आत्मा के निवास को मानते हुए भी व्यवहार में वर्णाश्रमी भेदभाव को मानते रह सकते हैं. यह पाखंड आज भी हमारे उच्च मध्यवर्ग में चला आ रहा है. भारत के उच्च मध्यवर्ग के लोग, चाहे उनकी विचारधारा क्रांतिकारी ही क्यों न हो, अपनी सुख-सुविधाओं को हासिल करने में पीछे नहीं रहते. और अपने लोभ-लालच को सही ठहराने के लिए तरह-तरह के तर्क भी गढ़ लेते हैं. यही बात निम्न मध्यवर्ग के लोगों के मन में बेहद क्षोभ पैदा करती है. उनका अपनी मेहनत का फल भी हासिल न कर पाना और तथाकथित क्रांतिकारी नेताओं का सारी सुख-सुविधाओं वाला जीवन जीना. निम्न मध्यवर्ग के रंजन दुनिया भर के सपने देखते हैं, सुख-सुविधाओं की लालसा करते-करते गंदी बस्ती में अपने दिन काटते हैं. रंजन के जरिये मध्यवर्गीय नैतिकता की पड़ताल करते हैं टेकचंद अपनी कहानी ‘सुअर क्लास’ में. रंजन अपनी ज़ुबानी क्रांति में सारे नेताओं की पोलपट्टी खोलता है, लेकिन खुद भी नशे में चूर कीचड़ में जा गिरता है. रंजन की हालत देख कर लगता है कि हमारा लेखकगण जिस क्रांति का बिगुल बजाते रहते हैं, वह आखिर हो क्यों नहीं पा रही है. मध्यवर्गीय रंजन में नैतिक बल का अभाव ही उसकी सीमा है, उसके पतन का कारण है, केवल विचारों के क्रांतिकारी होने से कुछ नहीं होता, उन्हें साकार करने का नैतिक बल भी होना जरूरी है.

दलित परिवारों में शिक्षा के कारण जागृति तो आई है, लेकिन अभी भी परंपराओं के नाम पर अंधविश्वास घर किए बैठे हैं. इन अंधविश्वासों और पुरानी मान्यताओं का सबसे अधिक शिकार महिलाएँ बनती हैं. रजत रानी ‘मीनू’ की कहानी ‘वे दिन’ इसी विषय पर है. अच्छे घर यानी संपन्न घर में शादी करने के लिए अंजू के पिता उसके दसवीं की परीक्षा देने तक का इंतज़ार नहीं कर पाते. ससुर और देवर की मदद से वह पेपर देती है और दसवीं पास करती है. लेकिन जब इंटर करना चाहती है, तो उसका पति उसे आगे पढ़ने नहीं देता. इस तरह पढ़ा लिखा दलित स्त्री की शिक्षा और आत्मसम्मान के रास्ते में आ जाता है. और जब उसके बच्चे बड़े हो जाते हैं तो उसे अपने रास्ते से हटाने के लिए उस पर चरित्रहीनता का आरोप लगा देता है. और उसे घर से निकाल देता है. रजत रानी ‘मीनू’ की यह कहानी दलित पुरुषों की पितृसत्तात्मक प्रवृत्तियों को बेनकाब करती है.

सरकार ने दलितों की हालत सुधारने के लिए गाँवों में ज़मीनों के पट्टे दलितों को बाँटे. पहले तो बंजर ज़मीन के पट्टे बाँटे, जहाँ कहीं बाँटे भी तो उन्हीं को, जो उनके खेतों में बेगार करते थे. और जहाँ बँटे भी वहाँ उन ज़मीनों पर अधिकांश में शक्तिशाली जातियों का ही कब्जा रहा. इन पट्टों के पीछे के सपनों, दर्द और हताशा को अपनी सशक्त कलम से कृष्ण पाल ‘परख’ ने ‘पट्टा’ कहानी में उकेरा है. दलितों की आपसी रंजिशों और जाटों की कुटिल चालों ने किस तरह इस देश के लोकतंत्र को फेल कर दिया, यह कहानी पढ़ते-पढ़ते आँखों के सामने साकार होने लगता है. कानून बन जाना ही काफी नहीं है, समाज में जातिविरोधी लोकतांत्रिक चेतना का होना भी ज़रूरी है.

माँ की ममता की कहानियाँ सभी किताबों में भरी पड़ी हैं, निश्चय ही माँ के प्रेम से बढ़कर कोई प्रेम नहीं होता. ममता की ऐसी ही एक यशोदा कहानी है पूरन सिंह की ‘जब ममता शून्य हुई’. पंडिताइन को बच्चे नहीं होते थे. अपनी एक पुरानी परिचित नर्स से मिल कर अस्पताल से नवजात बच्ची को पालने के लिए ले आती है. पंडिताइन की ममता बरसाती नाले की तरह बाँध तोड़कर बह निकलती है. आठ दिन बीतते न बीतते बच्ची के माँ-बाप बच्ची को लेने आ जाते हैं. पंडिताइन गिड़गिड़ाती है, पैसे का लालच भी देती है. माँ बाप भी एक बार को मानने वाले ही होते हैं कि नर्स बता देती है कि इसके माँ बाप मेहतर हैं. यह पता लगते ही पंडिताइन एक झटके में बच्ची वापस कर देती है. ममता पर जातिवादी घृणा का ग्रहण लग गया था न.

दलितों में बाबासाहेब की शिक्षा के प्रचार से सबसे बड़ा काम यह हुआ है कि उनमें आत्मविश्वास जगा है. उन्होंने अपने गंदे धंधों को छोड़ कर साफ सुथरे धंधे अपनाए. अपना रहन सहन बदला. एक तरफ तो सवर्ण कहते हैं कि दलित गंदे रहते हैं इसलिए उनके साथ रहना या उन्हें छूना मुश्किल है, दूसरी तरफ जो दलित अपने खानदानी पेशों को छोड़ते हैं, गाँव देहात में जरूरत पड़ने पर उन्हें वही पेशा करने के लिए मजबूर किया जाता है. संत राम आर्य ने ‘कोल्हू के बैल’ में दर्शाया है कि बच्चे पढ़ लिख कर शहर चले जाते हैं लेकिन माँ बाप अपने पुराने धंधे का मोह नहीं छोड़ पाते और गाँव में ही रह जाते हैं. जब गाँव में ठाकुर को जच्चगी के समय जरूरत होती है, तो वह इन्हें जबर्दस्ती बुला भेजता है. न आने पर परिणाम भुगतने की धमकी तो होती ही है. जब तक ऐसा ही चलता रहेगा तब तक कैसे आएगा इस देश में सामाजिक लोकतंत्र.

अक्सर अच्छा पढ़ने वाले बच्चों को छात्रवृत्तियाँ या इनाम बाँटे जाते हैं. इनाम बाँटने वाले एक ही सदिच्छा से प्रेरित होते हैं कि गरीब और होनहार बच्चों की कुछ आर्थिक सहायता हो जाएगी. परंतु यह इनाम उन्हें कितना प्रेरित करता है और कितने ही बच्चे इनाम हासिल करने का सुख हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं इसे विषय बनाया है राजेंद्र बड़गूजर ने अपनी कहानी ‘इनाम’ में. सरपंच की ओर से घोषणा की जाती है कि जो भी बच्चा आठवीं क्लास में प्रथम आएगा उसे पंचायत की ओर से एक हजार रुपये का इनाम दिया जाएगा. यह बात चंद्रशेखर के दिल में बैठ जाती है और वह ठान लेता है कि चाहे कुछ हो जाए वह इस इनाम को हासिल करके ही रहेगा. लेकिन जब चंद्रशेखर प्रथम स्थान हासिल कर अपना इनाम लेने जाता है तो सरपंच साफ मुकर जाता है. सरपंच ने सोचा भी नहीं होता कि कोई दलित सारे गाँव में प्रथम आ जाएगा. इसलिए वह नाट जाता है. हताश बाप जब घर आता है, तो उसका दोस्त रग्घू लड्डू ले के आता है. चंद्रशेखर के प्रथम आने की खुशी में. एक की खुशी सारे दलितों की खुशी बन जाती है. इस तरह वे एक दूसरे की हौसला अफजाई करते हैं.

शहरीकरण का एक प्रभाव यह हुआ है कि मानव दूसरे की पीड़ा के प्रति संवेदनहीन हो गया है. अपनी संवेदनहीनता को तरह-तरह के बहानों के पीछे छिपाता है. उमेश कुमार सिंह की कहानी ‘जाति की भूल-भुलैया में पंडित जी’ में बस में यात्रा करती एक महिला के बीमार हो जाने के प्रति यात्रियों में फैली संवेदनहीनता को दर्शाया गया है. गरीब और लाचार दलित और चरित्रहीन होते हैं, यह मध्यवर्गीय मान्यता बस के मुसाफिरों में भरी हुई है और वे उस महिला की मदद करने के बजाय उसे चरित्रहीन ठहरा कर अपने अपराधबोध का शमन करते हैं. जब पता चलता है कि वह महिला एक ब्राह्मण पुत्री है तो जो पंडित ज्ञान बघार रहे थे कि भगवान की आरती छूट जाएगी, चुप्पी साध जाते हैं.

इंजीनियरी और डॉक्टरी के शिक्षा संस्थानों में भी जातिवाद पसरा पड़ा है. मामला रैगिंग को हो या वायवा का, हर जगह भेदभाव देखने को मिलता है. जाति के आधार पर गुट भी बन जाते हैं. अगर कॉलेज राजनीति में कोई दलित जीत गया तो सवर्णों का कहर लाचार दलितों पर बरसता है. इन्हीं किस्सों को जोड़कर कथा में ढाला है मुसाफिर बैठा ने अपनी कहानी ‘दरोगवा’ में. दलितों पर अत्याचार के बाद ऐसे में प्रिंसिपलों का व्यवहार खासा जातिवादी होता है. और वे आत्मसम्मान वाले दलितों का मानमर्दन करने का कोई मौका नहीं छोड़ते.

गाँव हो या शहर, दलितों पर अत्याचार अनाचार के किस्से हैं कि थमने में ही नहीं आते. बाबासाहेब की शिक्षा का एक असर यह हुआ है कि दलितों ने संगठित हो कर विरोध करना शुरू कर दिया है. अत्याचार का एक ही इलाज है कि उसका मुकाबला किया जाए. शीलबोधि अपनी कहानी ‘बस! हमें अब लड़ना है’ में हमें यही संदेश देते हैं.

जाति का जहर न केवल दलितों को दुख पहुँचाता है, वह दूसरों को भी अपना शिकार बनाता है. श्यामलाल राही की ‘विशेसर पंडित’ और आलोक कुमार सातपुते की ‘परिवर्तन’ कहानियाँ दर्शाती हैं कि इनके शिकार सवर्ण यहाँ तक कि ब्राह्मण भी हुए हैं. गरीबी और अभावों भरी जिंदगी जीने वाले विशेसर पंडित जात-पात, ऊँच नीच में ज्यादा विश्वास नहीं करते थे. गरीब ब्राह्मण का दलितों से मेल हो जाता है. यह कहानी एक तरह से वर्ण पर वर्ग के हावी होने को प्रमाणित करती है. आलोक कुमार सातपुते तो गरीबी और अभाव के कारण अपनी बेटी के लिए एक दलित युवक को वर स्वीकारने वाले तिवारी की कथा है. काफी उहापोह के बाद तिवारी दलित युवक को अपना लेते हैं. हालाँकि कई दलित इस बात का विरोध करते हैं, पर जाति तोड़ने की बुनियादी शर्त ही है कि दलितों और गैर दलितों में अंतर्जातीय विवाह हों. सवर्णों में उदारता आए. सवर्णों की उदारता में हर जगह कुटिलता ढूँढना बाबासाहेब के स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के आदर्श के खिलाफ है.

जातिवाद का विराट शरीर है, उसकी हजारों बाहें, सैंकड़ों मुख हैं. इन मुखों से वह कहीं उदारता, कहीं कट्टरता, कहीं समानता, कहीं यज्ञों से वातावरण के शुद्ध होने, कहीं परधर्मियों की आलोचना करने तो कहीं संस्कृत का गुणगान करता रहता है. हजारों भुजाएँ नाना प्रकार के हथियारों से सुसज्जित हैं. किसी में कानून, किसी में बाजार, किसी में धर्म, किसी में रक्त की शुद्धता, कहीं भिक्खुओं का अपमान तो कहीं पंडितों का गुणगान. डॉ. अंबेडकर का महत्व इस बात में है कि उन्होंने अपने विराट साहित्य में इस जातिवाद के शरीर, इसकी आत्मा, इसकी नाना कुटिलताओं, अनाचारों को खोल कर रख दिया है. अंबेडकरवादी साहित्य इस जातिवाद के विभिन्न रूपों, आयामों, प्रकारों, किस्मों से हर स्तर पर मोर्चा लेता है. यही कारण है कि इस साहित्य में सवर्ण दृष्टि से ग्रस्त आलोचकों को कभी गंभीरता की कमी दिखती है तो कभी कला पक्ष कमज़ोर दिखता है. कभी इनका संघर्ष मार्क्सवादी समाजवाद के खिलाफ दिखता है तो कभी सांप्रदायिकता के पक्ष में. जो नहीं दिखता वह है अंबेडकरवादी लेखकों की इस देश के वर्ग संघर्ष के प्रति सजगता. और उसमें अपने यानी सर्वहारा के पक्ष में सशक्त ढंग से खड़े होने की पुरजोर कोशिश. इसी संघर्ष को आगे बढ़ाती हैं ये अंबेडकरवादी कहानियाँ. हमें विश्वास है कि इस संग्रह के लेखक और अन्य लेखक भी इस अंबेडकरवादी चेतना का प्रसार करेंगे और इस देश में सच्चे समाजवाद की चेतना के प्रसार में अपना योगदान देंगे.