17 December, 2007

सूचना प्रौद्योगिकी और हिंदी समाज

हमारी सदी सूचना क्रांति की सदी है. आज पूरी दुनिया में सूचना प्रौद्योगिकी का डंका बज रहा है. ‘वसुधैव कुटुम्बकं’ का आदर्श और कहीं चरितार्थ होता हो या नहीं, कम से कम सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया में तो चरितार्थ होता ही है. मोबाइल फोन, कंप्यूटर और इंटरनेट इस क्रांति के वाहक हैं. हालाँकि हमारे देश में सामान्यतः सूचना प्रौद्योगिकी का मतलब कंप्यूटर समझा जाता है. यह कुछ ग़लत भी नहीं है. क्योंकि कंप्यूटर चिप ही सूचना क्रांति का आधार है.

सूचना प्रौद्योगिकी के कारोबार का माध्यम बनने ने अनंत संभावनाओं के द्वार पहले ही खोल दिए थे, रही-सही कसर इसके मनोरंजन का साधन बनने ने पूरी की, जिसने छोटे-छोटे बच्चों से लेकर प्रौढ़ों तक को अपने सम्मोहन में जकड़ लिया. इंटरनेट ने तो गृहणियों और बुज़ुर्गों तक पर अपना रंग चढ़ा दिया.

भारतीय अभिजात्य वर्ग के जातिगत अभिमान और उनकी शारीरिक श्रम के प्रति चिरस्थायी घृणा का सूचना प्रौद्योगिकी के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. इसके चलते कंप्यूटर तंत्र के विकास में हार्डवेयर की घोर उपेक्षा हुई. नतीजतन हार्डवेयर का मूल्य अन्य देशों की अपेक्षा खासा ज्यादा रहा. जिससे मध्यमवर्ग के आदमी के लिए भी कंप्यूटर खरीदना एक विलासिता ही रहा. दूसरी तरफ, हमारे अभिजात वर्ग की जनभाषा से घृणा ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को कंप्यूटर से दूर रखा. कंप्यूटरी में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के विषय में जो प्रयास किए भी गए, उनका भी इन्होंने प्रचार नहीं किया. और हिंदी कंप्यूटरी के संबंध में भ्रमजाल फैलाया. उक्त दोनों कारणों से कंप्यूटर संस्कृति की पैठ समाज में व्यापक और निम्न स्तरों तक नहीं हो पाई. फलस्वरूप इसने भारत में डिज़िटल विभाजन पैदा किया, जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है. इसने एक ओर कुशल और महँगे श्रम का बढ़ता बाज़ार बनाया तो दूसरी ओर अकुशल रोज़गार का लगभग पूरी तरह खात्मा कर दिया. जिससे हमारे यहाँ पहले से ही मौजूद आर्थिक असमानता की खाई और भी तेज़ी से चौड़ी होती चली गई.

आम हिंदी भाषी में जहाँ कंप्यूटर के प्रति आकर्षण है, वहीं अंग्रेज़ी के वर्चस्व के कारण असहायता भी दिखाई देती है. इस असहायता और हीन भावना को बढ़ाने में अंग्रेज़ी परस्त लोगों के फैलाए झूठों का भी योगदान है. जिनमें से सबसे ज़्यादा प्रचारित और प्रचलित झूठों में से कुछ इस प्रकार हैं—
एक तरफ तो यह कि
एक, हिंदी में कंप्यूटर पर काम करना संभव ही नहीं है.
दो, यदि है भी तो केवल निचले स्तर का काम ही संभव है.
तीन, उच्च स्तर की सारी कंप्यूटरी केवल अंग्रेज़ी में होती है.
चार, सारे मूल सॉफ्टवेयर अंग्रेज़ी में बनते हैं और प्रोग्रामिंग तो केवल अंग्रेज़ी में होती है.
और यदि आप यह साबित कर दें कि यह संभव है तो दूसरी तरफ यह कि—
हिंदी में काम करना बहुत मुश्किल है. क्योंकि पहले तो तुम्हें हिंदी टाइप करना नहीं आएगा.
दूसरे, अगर आ भी गई तो हिंदी फोंट नहीं मिलेगा.
तीसरे, यदि मिल भी गया तो तुम इंटरनेट ब्राउज़ नहीं कर सकोगे, ई-मेल नहीं भेज सकोगे.
चौथे, ऑपरेटिंग सिस्टम तो केवल अंग्रेज़ी में चलता है. यदि तुमने हिंदी का ऑपरेटिंग सिस्टम जुगाड़ भी लिया तो दूसरे कंप्यूटरों से कनेक्ट कैसे करोगे क्योंकि वे तो अंग्रेज़ी के ऑपरेटिंग सिस्टम पर चल रहे हैं.
यदि आप यह भी झेल लें तो उनका ब्रह्मास्त्र तैयार है कि तुम्हें कंप्यूटर की हिंदी ही समझ में नहीं आएगी.

यह हौवा खड़ा कर अंग्रेज़ीदाँ लोग झूठ के इस पुलिंदें को कुछ यूँ प्रचारित करने में सफल रहे हैं कि यदि तुम हिंदी-हिंदी चिल्लाओगे तो देश तो पीछे रह ही जाएगा, तुम खुद भी मोटी तनख्वाहों और विदेशी दौरों से वंचित रह जाओगे. इसलिए बेहतर यही है कि तुम अंग्रेज़ी ही सीख लो और उसी में अपना काम करो.

इनमें से कुछ झूठ अपने निहित स्वार्थों की रक्षा के लिए फैलाए गए तो कुछ अज्ञानतावश. ख़ैर, यह कौआरौर ज़्यादा समय तक समाज को नहीं बरगला सकती. खासकर इसलिए भी कि इसने सूचना क्रांति के प्रसार को बुरी तरह महानगरों तक सीमित कर दिया है. आज भारतीय कंपनियों से ज्यादा अमरीकी कंपनियों को हिंदी की चिंता सता रही है. क्योंकि वे जानती हैं कि हिंदी के ज़रिए पूरे दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप के बाज़ार के दरवाज़े और तेज़ी से खुलते हैं. कारोबार और मनोरंजन की दुनिया आम जनता की दुनिया है. यह केवल कुछ सरकारी नौकरशाहों और अभिजात्य लोगों की सनक पर टिकी नहीं रह सकती. यही कारण है कि आज लगभग हर अमरीकी और यूरोपीय कंपनी अपने उत्पादों में हिंदी समर्थन दे रही है. और उनके हिंदी संस्करण बाज़ार में उतार रही है.
इस वास्तविकता के बारे में हमारा हिंदी समाज क्या सोचता है? तकनीक और विज्ञान विरोधी हिंदी समाज को ऐसा लगा—‘दीवान-ए-सराय 01 के संपादक के शब्दों में कहें तो’ –
“जैसे कलिकाल आ धमका है. अपनी जानी-पहचानी दुनिया ध्वंस के कगार पर है, नैतिक वज्रपात हो रहे हैं, दैनंदिन ‘नंगई’ हो रही है, अपसंस्कृति फैल रही है और न जाने क्या-क्या. कुल मिलाकर लगता है कि ‘विश्वायन’ या वैश्वीकरण के रूप में सर्वथा शत्रु-जीवी हिंदी को एक नया शत्रु, सर्वशक्तिमान, सर्वोपस्थित खलनायक मिल गया है. इस विचार दृष्टि के प्रभुत्व का एक साफ़ घाटा यह हुआ है कि संचार के अभिनव रूप भी अविच्छिन्न तौर पर विश्वायन-जन्य दीगर हिंसाओं से जुड़कर एकमुश्त निंदा के शिकार हो गए हैं.”(1)

लेकिन जब हिंदी समाज को सूचना क्रांति में रोज़गार के अवसर, विदेशी दौरे और अनाप-शनाप पैसा दिखा तो फिर शुरू हुआ, किसी तरह इस भीड़ में ठस जाने का सिलसिला. यानी कैसे भी अपने बिचुवा को कोई कंप्यूटर कोर्स करा दो, फिर उसे कहीं फिट करा दो, बस हो गए वारे न्यारे. बदकिस्मती से कंप्यूटर की दुनिया में फिट करना उतना आसान नहीं है. यहाँ आपकी काबलियत और मेहनत ही आपको टिका के रख सकती है.

11 December, 2007

ठेठ हिंदी का ठाठ

आज एक नकली हिंदी सब तरफ छायी हुई है. कारण कि जिसे देखो वह अंग्रेजी की बैसाखी के बिना सोचना ही नहीं चाहता. नतीजा यह कि वाक्य विन्यास हो या कहने का सलीका, सब पर अंग्रेज़ी की छाया है. जिससे हिंदी की पठनीयता बुरी तरह प्रभावित होती है. मसिजीवी