10 January, 2008

दलित पुनर्जागरण के सवाल

आज देश संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है जिसमें जहाँ अर्ध-सामंती/अर्ध-बुर्जुआ/अर्ध-उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था पूरी तरह उपनिवेशवादी अर्थ-व्यवस्था में बदलती जा रही है, जिससे पूँजीवादी और समाजवादी ताकतों के अंतर्विरोध और तीखे हुए हैं तो वहीं सामंती समाज-व्यवस्था बाज़ारू समाज-व्यवस्था में रूपांतरित हो रही है, साथ ही लोकतांत्रिक चेतना का विस्तार भी हो रहा है यानी एक तरफ हमारे सामाजिक संबंधों पर बाज़ार की वक्र दृष्टि पड़ रही है तो दूसरी ओर समाज में लोकतंत्र का विस्तार भी हो रहा है.
उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में हमारे देश में सामाजिक आंदोलनकारी मार्क्स, गांधी, लोहिया और अंबेडकर के चिंतन से प्रभावित रहे हैं. डॉ. अंबेडकर के चिंतन से प्रभावित लोग चाहे मीडिया में अपनी जगह बनाने में कामयाब न हुए हों परंतु सतह के नीचे बहती अंतर्धारा के रूप में हमेशा विद्यमान रहे हैं. आज अंबेडकरवादी साहित्य और चिंतन ने मुख्यधारा के मंचों पर अपनी जगह बना ली है.
क्या है यह अंबेडकरवादी विचारधारा? इसका दूसरी क्रांतिकारी विचारधाराओं के साथ क्या रिश्ता है? इस देश में लोकतंत्र की प्राचीन काल से बहती आ रही धारा के साथ इसका क्या रिश्ता है? आज प्रमुखता पा रही सांप्रदायिक विचारधारा के प्रति इसका क्या नज़रिया है? इस विचारधारा के अपने क्या अंतर्विरोध हैं? इन्हीं सब सवालों से जूझती है डॉ. तेज सिंह की पुस्तक ‘दलित समाज और संस्कृति’.
लेकिन तेज सिंह इन सवालों पर अकादमिक तरीके से विचार करने की बजाय एक आंदोलनकारी की तरह इनसे टकराते हैं. कार्ल मार्क्स की तरह वे भी मानते हैं कि ‘दर्शन का कार्य समाज की व्याख्या करना नहीं, इसे बदलना है.’
यह पुस्तक उनके विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों का संग्रह है इसलिए कई जगहों पर दुहराव भी दिखाई पड़ता है. लेखों का प्रकाशन वर्ष न दिया जाना और संदर्भ-सूची न होना इस पुस्तक को पढ़ते समय बार-बार खटकता है.
इस किताब के कई लेख मार्क्सवादियों और अंबेडकरवादियों के अंतर्विरोधों पर हैं. डॉ. तेज सिंह का महत्व इस बात में है कि एक, वे इस बहस में अंबेडकर के साथ खड़े हैं परंतु मार्क्स को अपने शत्रु के रूप में नहीं देखते. दो, शत्रु के रूप में हिंदू फासीवादियों की पहचान करते हैं जो उनकी वैचारिक प्रखरता और साहस को जाहिर करता है. तीन, जातिवाद को एक तरफ सामंतवाद से जोड़ते हैं तो दूसरी तरफ साम्राज्यवाद से. चार, साम्राज्यवादियों की नई शब्दावली पर मुग्ध नहीं होते और उसके पीछे छिपे उनके शोषणकारी मनसूबों की सही पहचान कर लेते हैं.
वे अपने लेख ‘अम्बेडकर वादी विचारधारा और समाज’ में विचारधारात्मक संघर्ष को कुंद करने में बाजारवाद की भूमिका की आलोचना करते हुए कहते हैं—‘बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद की संस्कृति और विचारधारा ने मनुष्य की वैचारिक-स्वतंत्रता और सोच को कुंद करना शुरू कर दिया है. सही अर्थों में यही उत्तर-आधुनिकता है, यही भूमंडलीकरण है जिसमें विचारधारा का अंत कर दिया गया है; तब उसमें मनुष्य का अंत भी निश्चित ही है। इस तरह भूमंडलीकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया अमरीकी साम्राज्यवाद की संस्कृति और विचारधारा के विस्तार की प्रक्रिया का ही हिस्सा है.’ (पृष्ठ 14)
भारतीय समाज के शत्रुओं की पहचान को रेखांकित करते हुए वे अगले लेख ‘अंबेडकरवाद, वामपंथ और दक्षिणपंथ’ में डॉ. अंबेडकर को उद्धृत करते हैं—‘मेरे खयाल से ऐसे दो शत्रु हैं जिनसे इस देश के मजदूरों को निपटना ही होगा. वे दो शत्रु हैं—ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद’. वे लगे हाथ ब्राह्मणवाद की अपनी समझ को भी स्पष्ट कर देते हैं—‘ब्राह्मणवाद से मेरा आशय एक समुदाय के रूप में ब्राह्मणों की शक्ति, उनके अधिकारों और हितों से नहीं है’ बल्कि ‘ब्राह्मणवाद से मेरा मतलब है—स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना का निषेध. उस अर्थ में यह सभी वर्गों में व्याप्त है और सिर्फ ब्राह्मणों तक ही सीमित नहीं है, हालाँकि यह बात अपनी जगह बिल्कुल सही है कि वे ब्राह्मण ही थे जो इस निषेधात्मक भावना के आदि प्रणेता और प्रवर्तक रहे. यह ब्राह्मणवाद जो सर्वत्र व्याप्त है और जो सभी वर्गों के विचारों और कार्यों को नियंत्रित-निर्देशित करता है, एक अकाट्य सच्चाई है.’ (पृ.25-26)
वे ठीक ही सांप्रदायिकता को जातिवाद से जोड़ते हैं—‘हमें मान लेना चाहिए कि जो जितना जातिवादी है वह उतना ही बड़ा सांप्रदायिकतावादी भी है. कम से कम भारत में सांप्रदायिकता का आधार जाति और धर्म है जिसके मेल को आधुनिक भाषा में हिंदुत्व कहा जाता है. दूसरे अर्थों में इसे हिंदू साम्राज्यवाद भी कहा जा सकता है.’ और दलित बुद्धिजीवियों की कसक उनके इन वाक्यों में प्रकट हो उठती है—‘इस हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ वामपंथियों ने कभी संघर्ष नहीं चलाया. उनके राजनीतिक संघर्ष में सामंतवाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद तो है लेकिन इन सबसे गठबंधन करके सत्ता-सिर्फ राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक-आर्थिक सत्ता भी, पर काबिज होने वाला ब्राह्मणवाद उनकी आँखों से हमेशा ही ओझल रहता है. जातिवादी समाज-व्यवस्था को सामंती-अर्द्ध-सामंती अवशेष बताकर ब्राह्मणवाद को हाशिए पर डाल देना हिंदू साम्राज्यवाद को ही मजबूत करना है...वामपंथी ताकतों ने बाहरी साम्राज्यवाद के खिलाफ तो संघर्ष चलाया लेकिन अंदर के साम्राज्यवाद यानी हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ कोई संघर्ष नहीं चलाया. यही वजह है कि अधिकांश वामपंथियों के अंदर अभी भी ब्राह्मणवाद घर बसाए हुए है.’ पृ.32-33)
जाति व्यवस्था ब्राह्मणवादी विकृत मानसिकता की देन है जिसे डा. अंबेडकर ने ठीक ही अप्राकृतिक विभाजन माना है. वे लिखते हैं—‘इसलिए डॉ. अंबेडकर ने वर्ण विभाजन को न तो वर्ग विभाजन माना और न श्रम विभाजन ही. जबकि देश के कई मार्क्सवादियों ने वर्ण विभाजन को स्वाभाविक विभाजन मानकर एक प्रगतिशील कदम माना है; ठीक उसी तरह जैसे श्रम विभाजन के आधार पर होने वाला वर्ग-विभाजन. डॉ. रामविलास शर्मा का यही तर्क रहा है. इस तरह देश के ऐसे मार्क्सवादियों ने वर्ण-व्यवस्था के तहत होने वाले श्रेणीबद्ध-विभाजन को ही वर्ग-विभाजन मान लिया है और प्रकारांतर से जातिप्रथा का ही समर्थन कर दिया है. सीधे-सीधे जातिप्रथा का समर्थन करने पर उन्हें प्रतिक्रियावादी घोषित किए जाने का डर था तो घुमा फिराकर वर्ण-विभाजन को वर्ग-विभाजन बता दिया. इसे इनका मार्क्सवादी चिंतन नहीं, ब्राह्मणवादी चिंतन कहा जाना चाहिए.’ (पृ.37)
डॉ. अंबेडकर के प्रति मार्क्सवादियों की दुविधा पर उन्होंने विस्तारपूर्वक विचार किया है. ‘अंबेडकरवाद और मार्क्सवाद का द्वंद्वात्मक संबंध’ शीर्षक लेख में उन्होंने मार्क्सवादियों के पक्ष को इन शब्दों में प्रस्तुत किया है—‘वामपंथियो का एक बहुत बड़ा तबका ... यह मानता रहा है कि भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में जातिप्रथा ने कोई अवरोध पैदा नहीं किया. अपनी इसी स्थापना के चलते वामपंथियों ने जातिप्रथा के प्रभाव को कमतर आँकते हुए उसके विघटनकारी तत्वों की ओर ध्यान नहीं दिया. वे यह भी नहीं मानते हैं कि जातिप्रथा ने ही सामाजिक-भेदभाव के विभिन्न औजारों को पैदा करके समाज को विभिन्न जातियों-उपजातियों में बाँटकर सामाजिक अलगाव की प्रक्रिया को और मजबूत आधार प्रदान किया है तथा वर्गहीन समाज के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा पैदा की है. इसके विपरीत यह मानते रहे हैं कि दलितों के पास अंबेडकर जैसे प्रख्यात नेता के नेतृत्व के बावजूद अछूतों के महान संघर्ष, छुआछूत के खात्मे के वांछित नतीजों तक पहुँचने में नाकामयाब रहे हैं. वे यह भी मानते हैं कि ब्राह्मणवाद विरोधी संघर्ष और धर्मपरिवर्तन के जरिए बौद्ध बन जाने जैसे ‘शार्टकट’ रास्तों से दलितों पर होने वाले अत्याचारों और जातिभेद आदि की समस्या का हल नहीं हो सका है. इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि डॉ.अंबेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण करके मार्क्सवाद पर सीधा प्रहार किया है और वर्ग संघर्ष से ध्यान हटाकर वामपंथी शक्तियों को कमज़ोर किया है.’ (प-.42-43) उन्हें लगता है कि ‘वामपंथियों की सबसे बड़ी समस्या डॉ. अंबेडकर द्वारा धर्म को स्वीकार कर लेने की रही है—वह भी बौद्ध धर्म को. उनकी दृष्टि में अगर डॉ.अंबेडकर हिंदू धर्म में बने रहकर जातिवाद के खिलाफ संघर्ष करते तो उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती. क्योंकि वे खुद हिंदू धर्म में रहते हुए वर्ग-संघर्ष पर लंबी चौड़ी बातें करते हैं तो दूसरी तरफ जातिभेद का विरोध करते हैं पर वर्ण व्यवस्था को मजबूत करने वाले ब्राह्मणवाद पर चुप्पी साधे रहते हैं.’ (पृ.43) तेज सिंह की यह बात बेबुनियाद तो नहीं लगती.
डॉ. अंबेडकर के पक्ष को रखते हुए वे ‘हिंदुत्व का दर्शन’ नामक पुस्तक से उन्हें उद्धृत करते हैं—‘संभवतः वर्तमान हिंदू मार्क्सवाद के घोर विरोधी हैं. इसके पीछे कारण यह है कि मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत से वे बहुत ही भयभीत हो जाते हैं. लेकिन वही लोग यह भूल जाते हैं कि भारत न केवल वर्ग-संघर्ष, वर्ग युद्ध की भूमि बन चुका है.’ डॉ.तेज सिंह बताते हैं कि अंबेडकर तो वर्ग-संघर्ष को नहीं भूले लेकिन वे (वामपंथी) खुद वर्ण व्यवस्था को मजबूत करने वाले ब्राह्मणवाद पर चुप्पी साधे रहते हैं.
क्या डॉ. अंबेडकर समाजवाद के विरोधी थे? क्या वे पूँजीवाद के समर्थक थे? नहीं, नहीं. वे समाजवाद के ही समर्थक थे. उनके शब्द-शब्द से जाहिर होता है कि वे राज्य नियंत्रित आर्थिक विकास चाहते थे. जबकि आज हमारे प्रधानमंत्री अर्थव्यवस्था में कम से कम दखल की तरफदारी कर रहे हैं. डॉ.अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में इन सवालों पर अपनी राय रखी है. जैसाकि तेज सिंह बताते हैं—‘एक अर्थ में डॉ. अंबेडकर ने सर्वहारा की तानाशाही का विरोध किया है पर समाजवादी व्यवस्था का नहीं. वे राज्य के नियंत्रण में नई समाज व्यवस्था के लिए ऐसी आर्थिक व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे जिसमें संपत्ति का समान वितरण हो, कृषि पर राज्य का स्वामित्व हो, सामूहिक खेती की व्यवस्था हो और बीमा का राष्ट्रीयकरण हो, इसके साथ-साथ वे तीव्र औद्योगीकरण की जरूरत को भी महसूस करते थे.’ (पृ.51)
महत्वपूर्ण बात यह है कि डॉ. तेज सिंह मतभेदों के बावजूद मार्क्सवाद को अंबेडकरवाद का दुश्मन नहीं मानते—‘अगर जातिविहीन-वर्गविहीन समाज का निर्माण करना है तो दलितों और कम्युनिस्टों—दोनों को ही इन समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए क्योंकि हिंदू फासीवाद आपके घर दस्तक दे रहा है.’ (पृ.52)
मार्क्सवाद को दुश्मन तो डॉ.अंबेडकर भी नहीं मानते थे. उनका गुस्सा तो तत्कालीन मार्क्सवादियों की जातिगत शोषण के बारे में साजिशी चुप्पी पर था. कितनी विडंबना की बात है कि मार्क्सवादी आज भी दलितों को अपने एजेंडे पर ही लाना चाहते हैं, उनके जातिगत शोषण पर अख़बार या टीवी चैनलों पर बयान जारी करने से ज्यादा कुछ नहीं करना चाहते. जब दलित जातिवाद का सवाल उठाते हैं तो मार्क्सवादी उन्हें वर्ग-संघर्ष और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत समझाने लगते हैं. लेकिन जाति, धर्म, लिंग और भाषा को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की कसौटी पर कसना उन्हें नहीं भाता. तेज सिंह ने अपनी पुस्तक में जाति, धर्म और लिंग पर तो बात की है, पर भाषा के पहलू को छोड़ दिया है.
आज कुछ दलित विचारक शब्दों की बाजीगरी कर हिंदू धर्म के साथ एक सुविधापूर्वक लाइन ले रहे हैं ताकि भाजपाई सरकारें उन्हें उपकृत कर सके और जो किसी संकोच के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, वे भारत के प्रगतिशील लेखकों और लोकतंत्र के पक्षधरों पर तीखा आक्रमण कर रहे हैं. जैसे भगवान बुद्ध, प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, जवाहर लाल नेहरू, पुरुषोत्तम अग्रवाल, मैनेजर पांडे, मैत्रेयी पुष्पा, रजनी तिलक, रमणिका गुप्ता, अनिता भारती, प्रभा खेतान, कम्युनिस्टों आदि पर. प्रगतिशील परंपरा का विरोध करने का मतलब भी एक तरह से सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतों का समर्थन करना ही होता है. क्योंकि वैसे भी इन्होंने कहीं भी इन शक्तियों के खिलाफ एक शब्द तक नहीं कहा, अलबत्ता कलावादी अशोक वाजपेयी जैसों की तारीफ जरूर की हैं.
तेज सिंह का प्रखर व्यक्तित्व इस कुहासे को छाँटता है और दलित लेखकों और समाज के सामने इन फासीवादी ताकतों के असली मनसूबों का पर्दाफाश करता है. वे आर.एस.एस. के जन विरोधी और दलित विरोधी रवैये को उजागर करते हैं. साथ ही उनके फासीवाद के चरित्र की ठीक पहचान करते हैं—‘भारत में फासीवाद का मूल चरित्र नस्लवादी नहीं जातिवादी है.’ ‘भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हिंदुत्व को एक जीवन पद्धति मानकर संवैधानिक मोहर लगाने के बावजूद हिंदुत्व का फासीवादी चरित्र खत्म नहीं हो जाता.’ (पृ.55) अपने ‘हिंदुत्व का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ शीर्षक लेख में उन्होंने भाजपा शासित राज्यों में हाल ही में घटी बहुत सी घटनाओं के उदाहरण से दिखाया है कि किस तरह भाजपा-आर.एस.एस. दलित विचारधारा और साहित्य का सारी लोक-लाज छोड़ विरोध करते हैं. इसीलिए डॉ. अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि किसी भी कीमत पर हिंदू राज (राष्ट्र) को रोकना ही होगा. अगर हिंदू राज एक सच्चाई में बदल जाता है तो यह इस देश के लिए सबसे बड़ी विपत्ति होगी. उन्होंने हिंदुओं की उदारतावादी अपील को भी खारिज कर दिया था. वे हिंदू कितनी ही उदारतावादी बातें कहें पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि हिंदूवाद हर लिहाज से लोकतंत्र विरोधी है और वह स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए एक ख़तरा है.’ (पृ.73)
संघ और विश्व हिंदू परिषद के जरिये कट्टरपंथी सवर्ण लोगों की रणनीति धार्मिक उन्माद फैला कर सांप्रदायिक हिंसा को एक ‘हथियार’ के रूप में इस्तेमाल कर दलित-आदिवासी-पिछड़ा समाज के लोगों की क्रांतिकारी चेतना को कुंद कर जाति और धर्म का वर्चस्व स्थापित करने के लिए उनका हिंदूकरण करने की रही है. तेजसिंह कहते हैं—‘दलितों के धर्म-परिवर्तन को रोकने के लिए ही हिंदू पुनरुत्थानवादी ताकतों ने सांप्रदायिकता का सहारा लिया है ताकि देश में सांप्रदायिक भावनाएँ उभारकर दलित-पिछड़ों की एकता तोड़कर उन्हें मुसलिम-सिख-ईसाइयों के खिलाफ एकजुट किया जा सके.’ (पृ.112)
और इसे रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए—‘हिंदू राष्ट्र के आतंकवादी चरित्र को हम दलित-पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक वर्गों की एकजुटता और एकता के आधार पर ही ध्वस्त कर सकते हैं. यह एकता और एकजुटता सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर ही नहीं सांस्कृतिक स्तर पर भी होनी चाहिए क्योंकि सांस्कृतिक एकता के बिना हिंदूवादियों की इस चुनौती को ध्वस्त नहीं किया जा सकता.’ (पृ.114)
दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्गों की एकता की जरूरत और उसके रास्ते में आने वाली रुकावटों तथा उन्हें दूर करने के तरीकों पर तेज सिंह अपने अगले तीन लेखों ‘इक्कीसवीं सदी में दलित समाज के सामने चुनौतियाँ’, ‘दलित समाज की वैचारिक-सांस्कृतिक एकता’ और ‘दलित-पिछड़ा वर्ग की सामाजिक-सांस्कृतिक एकता का सवाल’ में तफसील से विचार करते हैं. इनमें वे राजनीतिक से ज्यादा सांस्कृतिक एकता के महत्व को रेखांकित करते हैं. वे बार-बार आगाह करते हैं—‘राजनीतिक स्तर पर की गई एकता अस्थायी होगी और वह व्यक्तिगत स्वार्थों तथा वर्ग हितों के टकराते ही एक क्षण में टूटकर बिखर जाएगी. इसलिए दलित वर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक धरातल पर विकसित होने वाली एकता ही स्थायी होगी.’ (पृ.123)
वे जाति से लड़ने को ठीक ही सच्चे लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत मानते हैं—‘अगर जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना करनी है तो हमें जाति आधारित समाज-व्यवस्था का समर्थन करने वाले ब्राह्मणवाद और उसका पोषण करने वाले सामंतवाद को जड़ से खत्म करना होगा तथा जनवादी और लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों से वंचित करने वाली पूँजीवादी-व्यवस्था और उसकी विजय का गौरवगान करने वाली साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध लंबा संघर्ष करना होगा.’ (पृ.123)
वे अगले लेख ‘सामाजिक-अलगाव की संस्कृति के खिलाफ संघर्ष’ में ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष की लंबी परंपरा को चीन्हते हैं—‘यह भी सच्चाई है कि ब्राह्मणों के वर्चस्व और उसकी अमानवीय और असमानता की विचारधारा (ब्राह्मणवाद) के खिलाफ विद्रोह की लंबी परंपरा रही है. अंबेडकरवादी आंदोलन विद्रोह की इसी लंबी परंपरा में विकसित हुआ है.’ (पृ.134)
उनकी एक महत्वपूर्ण स्थापना है मध्यकालीन संत आंदोलन को ‘दलित पुनर्जागरण’ मानना—‘लंबे अंतराल के बाद दूसरा प्रयास बौद्धों और लोकायतों की परंपरा में ही सिद्धों-नाथों ने किया जिनमें अधिकांश निम्न समुदायों से आए थे. यह पूरी तरह से सांस्कृतिक आंदोलन था जिसकी जमीन पर मध्ययुग का दलित-पिछड़े वर्ग का सांस्कृतिक आंदोलन विकसित हुआ जिसे भ्रमवश कुछ ब्राह्मणवादी विचारधारा के समर्थक विद्वान भक्ति आंदोलन कहते हैं. यह वास्तव में दलित-पिछड़े वर्ग के कवियों का सांस्कृतिक आंदोलन था जिसमें सामाजिक-धार्मिक सुधार की भावना प्रबल थी और जो दलित पुनर्जागरण के साथ शुरू हुआ था. भारत में पहला दलित पुनर्जागरण मध्ययुग में दलित-पिछड़े वर्ग के कवियों की प्रेरणा से शुरू हुआ था-ठीक यूरोप के पुनर्जागरण की तरह.’ (पृ.135)
तेज सिंह जहाँ एक ओर अंबेडकरवाद-मार्क्सवाद के अंतर्संबंधों पर विस्तारपूर्वक अपनी बात रखते हैं वहीं वे दलितों के वैचारिक स्खलन को भी उतनी ही गंभीरता से लेते हैं. इस दृष्टि से उनका सबसे महत्वपूर्ण लेख है ‘दलित धर्म और दर्शन’. इस लेख में उन्होंने आज दलितों के स्वयंभू मसीहाओं के अंबेडकर विरोधी चिंतन को बेनकाब किया है. दलितवाद के नाम पर ये लोग जातिवादी और स्त्रीविरोधी विचार फैलाकर दलितों को दिग्भ्रमित कर रहे हैं. वे बताते हैं—‘डॉ. धर्मवीर ‘कबीर का धर्म’ कबीर के आलोचकों के आधार पर चलाना चाहते हैं और दलितों को भी सलाह देते हैं कि वे बौद्ध-धम्म के बजाय कबीर के धर्म को अपना धर्म स्वीकार करें. इस प्रकार वे कबीर को एक साहित्यकार के स्थान पर धर्म-उपदेशक बनाने पर तुले हुए हैं.’ और उनका विरोध करते हुए ठीक ही कहते हैं—‘धर्म को साहित्य और संस्कृति से मिला देने का मतलब होता है—फासीवाद और सांप्रदायिकता को जन्म देना.’ (पृ.158-189)
डॉ. तेज सिंह डॉ. अंबेडकर की तरह धर्म का संबंध नैतिकता से जोड़ते हैं—‘धर्म और ईश्वर में अभिन्न संबंध नहीं है परंतु धर्म और नैतिकता में अभिन्न संबंध है.’ डॉ.अंबेडकर धर्म की उत्पत्ति पर विचार करते हुए कहते हैं—‘आदिम समाज का धर्म, जीवन तथा उसकी सुरक्षा से संबंधित था और जीवन की इस प्रक्रिया से ही असभ्य समाज के धर्म की उत्पत्ति हुई है और इसमें ही उसका सार है. क्योंकि आदिम जीवन को जीवन और प्रवास की इतनी अधिक चिंता थी कि उसी को उसने अपने धर्म का आधार बनाया.’
अगले लेख ‘दलित सामंत का स्त्री विरोधी चिंतन’ में वे दलित लेखकों के स्त्रीविरोधी चिंतन का प्रखर विरोध तो करते ही हैं साथ ही मार्क्सवादी लेखकों द्वारा उनके स्त्री विरोध पर चुप्पी साधने की भी तीखी आलोचना करते हैं. ‘इस बात पर मतभेद हो सकता है कि प्रेमचंद सामंत के मुंशी थे या नहीं, लेकिन यह निश्चित है कि धर्मवीर ब्राह्मणवाद के पक्के सामंत बन गए हैं. इसलिए धर्मवीर को ब्राह्मणवाद का सामंत कहना ज्यादा ठीक लग रहा है.’ (पृ.196)
उनकी दूसरी महत्वपूर्ण स्थापना, जिसे वे सन् 2004 से बार-बार विभिन्न मंचों पर दोहरा रहे हैं, कि हमें इस साहित्य को ‘दलित साहित्य’ के स्थान पर ‘अंबेडकरवादी साहित्य’ कहना चाहिए.
इस किताब के अंतिम लेख ‘लोकतंत्र और दलित उत्पीड़न की संस्कृति’ में डॉ. तेज सिंह कहते हैं—‘भारत का इतिहास ब्राह्मणवाद और बौद्ध-धम्म के अनुयायियों के बीच परस्पर संघर्ष का इतिहास रहा है.’ इसी तरह यह किताब भी अंबेडकरवादी-लोकवादी शक्तियों और ब्राह्मणवादी-पूँजीवादी शक्तियों के बीच संघर्ष का दस्तावेज है.
कितना सटीक है इस पुस्तक का अंतिम वाक्य—‘सामाजिक लोकतंत्र के रास्ते ही हम समाजवाद के संकल्प को पूरा कर सकते हैं जिसमें दलित-पिछड़े वर्ग को हिंदुत्व की अपसंस्कृति से पूरी तरह मुक्ति मिल सकेगी.’ (पृष्ठ 216)

पुस्तक का नाम : दलित समाज और संस्कृति
लेखक : तेज सिंह
प्रकाशक : आधार प्रकाशन प्रा. लि., पंचकूला, हरियाणा
प्रथम संस्करण : 2007
मूल्य : 250/-


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